Monday 17 August 2015

काश…पढ़-लिखकर मेरे बच्‍चे नेता बनें

-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
मैं चाहता हूं कि मेरे बच्‍चे पढ़-लिखकर नेता बनें। वैसे हमारे देश में नेता बनने के लिए पढ़ाई-लिखाई मस्‍ट नहीं है लेकिन फिर भी मैं चाहता हूं कि मेरे बच्‍चे पढ़-लिखकर ही नेता बनें ताकि उन्‍हें संसद में बोलने या किसी बड़ी हस्‍ती की मौत पर शोक संदेश लिखने के लिए नकल की पर्ची साथ ले जाने की जरूरत न पड़े।
मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि देश के अधिकांश मां-बाप अपने बच्‍चों को पढ़ा-लिखाकर डॉक्‍टर, इंजीनियर, ब्‍यूरोक्रेट आदि ही क्‍यों बनाना चाहते हैं जबकि नेतागीरी में बिना पढ़े-लिखे भी फ्यूचर जितना ब्राइट है, उतना किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं है। पढ़-लिख लिए तो सोने पर सुहागा जैसी कहावत चरितार्थ होती है।
नेतागीरी में न सिर्फ अपना बल्‍कि अपनी कई पीढ़ियों का भविष्‍य सुरक्षित करने का कितना स्‍कोप है, इसके एक-दो नहीं अनगिनित उदाहरण आंखों के सामने हैं।
गुजरे जमाने के नेताओं की बात यदि ना की जाए तो आज का पप्‍पू नकल की पर्चियों से राजनीति में पास होने के लिए स्‍वतंत्र है। मजे की बात यह है कि सड़क से संसद तक नकल करते पकड़े जाने के बाद भी उसे ”बुक” नहीं किया जाता और तमाम लोग उसके पक्ष में सामने आकर खड़े हो जाते हैं।
यही एकमात्र ऐसा फील्‍ड है जहां हर माल बारह आने के हिसाब से बिकता है। इस फील्‍ड में गधे, घोड़े और खच्‍चर सब का मोल एक है। बारहवीं जमात ही पास करके कोई मानव संसाधन विकास मंत्री बन सकता है तो कोई हाईली एजुकेटेड होने या सेना का अवकाश प्राप्‍त जनरल होने पर भी राज्‍यमंत्री बनता है। बमुश्‍किल आठवीं जमात पास साध्‍वी महत्‍वपूर्ण विभाग का पदभार संभाल लेती हैं परंतु अच्‍छे-खासे पढ़-लिखकर आईएएस बनने वाले उनके अधीनस्‍थ हाथ बांधकर खड़े रहने पर मजबूर हैं।
तमाम नेता तो ऐसे हैं देश में जिन्‍हें डिग्रीधारी बनाकर उनकी यूनिवर्सिटी आज खुद को धन्‍य महसूस करती है। उसे मानना पड़ता है कि उनकी डिग्री में दम है।
कल स्‍वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिले की प्राचीर से दिए गए भाषण को लेकर किसी सिरफिरे पत्रकार ने एक कायाकल्‍पी नेता से सरेआम पूछ डाला कि आज के भाषण पर आपकी क्‍या प्रतिक्रिया है?
कायाकल्‍पी नेता ने औपचारिक रूप से तो कैमरे के सामने कहा कि आज का दिन राजनीति के लिए नहीं है लिहाजा कल प्रतिक्रिया देंगे…लेकिन कैमरा ऑफ होते ही वह पत्रकार पर चढ़ बैठे।
कहने लगे कि यार तुम कतई बौड़म हो क्‍या, जानते नहीं कि अभी प्रतिक्रिया देने के लिए हमारे नोट्स तैयार नहीं हुए हैं, कल तक नोट्स तैयार हो जायेंगे तो हम खुद-ब-खुद प्रतिक्रिया देने चले आयेंगे। आज सब छुट्टी मना रहे हैं।
बहरहाल, बात हो रही थी नेतागीरी में स्‍कोप की। देश की दोनों बड़ी पार्टियों में राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष के पद को सुषोभित करने वालों की शैक्षिक योग्‍यता का इल्‍म ”गूगल बाबा” तक को नहीं है। आरटीआई जैसा हथियार भी इनकी शैक्षिक योग्‍यता के सामने हथियार डाल देता है। विश्‍वास न हो तो इस मुद्दे पर आरटीआई डालकर देख लो। कश्‍मीर से लेकर कन्‍याकुमारी तक कोई कुछ बता दे, तो राधे मां के चरण पकड़ लेना जाकर। उसके बाद मुक्‍ति के मार्ग केवल वही बता पायेंगी। आसाराम बेचारे निराश हैं अन्‍यथा वो भी बता सकते थे। तिहाड़ जाने का जुगाड़ कर सको तो वो आज भी बता देंगे। जेबरी भले ही जल गई हो किंतु बल ज्‍यों के त्‍यों हैं। बाबा रामपाल अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं अन्‍यथा वो भी बड़े उद्धारक हैं।
सेबी ने बेचारे सहारा को बेसहारा कर दिया है और वो खुद सुप्रीम कोर्ट के सहारे अपने दिन काट रहे हैं वर्ना नेताओं की उनके पास भी कभी अच्‍छी काट हुआ करती थी। आज नेता उन्‍हें काट रहे हैं।
यानि ”सब पर भारी अटलबिहारी” जैसे नारे की तरह नेतागीरी सब पर भारी पड़ती है। आम के आम और गुठलियों के भी दाम। बुढ़ापे तक साथ देती है राजनीति। इसमें न कोई ”भूत” होता है और न ”पूर्व”। उम्र का आंकड़ा तो जैसे पानी भरता है नेताओं के सामने। ऐसा नहीं होता तो कब्र में पैर लटकाए बैठै नेताजी के दामन से इस आशय का दाग नहीं धुल पाता कि ”न नर हैं न नारी हैं, नारायण….तिवारी हैं”। मौके देती है नेतागीरी, भरपूर मौके। तभी तो कोई पूर्व मुख्‍यमंत्री अपनी बेटी की उम्र वाली टीवी एंकर से इश्‍क लड़ाता है और कोई महिला मंत्री अपने बेटे की उम्र के लड़के से आईस-पाईस का खेल खेलती है।
इतना सब-कुछ समझाने-बुझाने के बावजूद मुझे शक है कि मेरे बच्‍चे मेरी सलाह मानेंगे। उनके अपने (कु) तर्क हैं। वो कहते हैं नेतागीरी के अलावा भी इस देश में एक फील्‍ड और ऐसा है जहां पढ़ाई-लिखाई पानी भरती है।
उनके ज्ञान के सामने में तब नतमस्‍तक हो गया जब उन्‍होंने भारत रत्‍न से लेकर खेल रत्‍न तक और पद्म पुरस्‍कारों से लेकर द्रोणाचार्य पुरस्‍कार तक का हिसाब दे डाला। साथ ही मेरे सामने भी प्रश्‍न उछाल दिया कि इनमें से किसी की शैक्षिक योग्‍यता का आपको पता है।
और हां, इन्‍हें भी छोड़ दें तो बॉलीवुड भरा पड़ा है अंगूठा टेक लेकिन भरी जवानी में तमाम पुरस्‍कारों से नवाजे जा चुके अदाकारों से। वहां भी कीमत कागजी पढ़ाई की नहीं, जुबानी जमाखर्च की है। पर्ची का वहां भी उतना ही महत्‍व है जितना कि नेतागीरी में। पर्ची पर लिखकर मिले डायलॉग जो जितना अच्‍छा डिलीवर कर लेगा, उसका उतना ही महत्‍व बढ़ जायेगा।
कहते हैं कि पर्ची से नकल के लिए भी अकल की जरूरत होती है…लेकिन यहां तो उसमें भी लगातार फेल होने वाला पप्‍पू नेतागीरी में पास है। बार-बार पकड़ा जाता है और फिर भी लोग कहते हैं कि बूढ़ा तोता पता नहीं कहां से ऐसी कोई हरी मिर्च खाकर लौटा है कि उलटा नाम बांचकर भी बाल्‍मीकि की तरह ब्रह्मज्ञानी कहला रहा है।
राम-राम को मरा-मरा पढ़कर ज्ञान सिर्फ नेतागीरी में ही संभव है।
मैं इसीलिए यही चाहता हूं कि मेरे बच्‍चे पढ़-लिखकर नेतागीरी ही करें।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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