Saturday 15 January 2022

चचा तो बहुत गुस्‍से में थे, क्या आपको भी आता है दलबदलुओं पर गुस्‍सा?


 चाय की दुकान पर चल रही चुनावी चकल्‍लस से निकलकर सीधे चले आ रहे चचा बहुत गुस्‍से में थे। ऐसे में उन्‍हें रोकना या टोकना यूं तो किसी आवारा सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा था, किंतु चुनावी चर्चा से निकली चाशनी चखने के चस्‍के ने रिस्‍क उठाने पर मजबूर कर दिया।

आम लोगों के मन में पत्रकारों की ‘बची खुची इज्जत’ को भी दांव पर लगाकर आखिर पूछ ही लिया- चचा क्या बात है, इतना क्यों गुस्‍साए हो… और किस पर गुस्‍साए हो?
करीब-करीब 70 बसंत देख चुके चचा ने सवाल के जवाब में पहले तो नथुने फुलाकर ऊपर से नीचे तक घूरा ताकि लिफाफा देखकर मजमून का इल्‍म हो सके, उसके बाद मुंह का मास्‍क नीचे करके थूक की बौछार सहित बोले- इन निर्लज्‍ज और निकम्‍मे नेताओं के इलाज का कोई आइडिया है जो टिकट की खातिर चुनाव से ठीक पहले अपना बाप बदलने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। हो तो बताओ, नहीं तो चलते बनो। खामखां दिमाग मारने का मेरा माद्दा बीत चुका है।
सुना होगा…खाली दिमाग शैतान का घर होता है। इससे पहले कि मेरा शैतान जाग जाए, चुपचाप खिसक लो वर्ना कहीं ऐसा न हो कि नेताओं की नीचता से उपजा गुस्‍सा यहीं निकल जाए।
पूरा धैर्य धारण कर चचा के गुस्‍से को मोड़ने की मंशा से कहा, चचा इसके लिए तो पब्‍लिक भी जिम्‍मेदार है जो चुपचाप इन्‍हें वोट डाल आती है। कभी इनसे नहीं पूछती कि जनता को धोखा देना कब छोड़ोगे।
पब्‍लिक के पास विकल्‍प है ही क्या। उसकी मजबूरी है इन्‍हीं ऐसे नीच, निर्लज्‍ज और दोगले नेताओं को चुनना जिनका न कोई दीन है और न ईमान। इन्‍हें पूरे कुनबे खानदान को चुनाव लड़ाना है क्योंकि वो जाहिल एवं गंवार दूसरा कोई और काम कर ही नहीं सकते।
चचा को असंसदीय शब्‍दों का प्रयोग करने से रोकने की कोशिश की तो वो भड़क गए। कहने लगे, जिन्‍हें न संसद की गरिमा का ख्‍याल है और न जनभावनाओं का, उनके लिए खालिस गालियां भी असंसदीय नहीं हो सकतीं भाई।
जिन्‍होंने संसद को भी मछली बाजार बना दिया है और जिनका असंसदीय आचरण किसी सड़कछाप गुण्‍डे को भी लज्‍जित करने के लिए काफी है, उन्‍हें संसदीय शब्‍दों से सुसज्‍जित करने की बात तो ना ही करें।
सच पूछो तो ये छूछी गालियां खाने के हकदार हैं। हालांकि, दिक्कत ये है कि जुबान गंदी करके भी इनकी ‘गिरगिटिया मानसिकता’ बदली नहीं जा सकती।
इनका इलाज अगर किसी के पास है तो वो भी इनके अपने आकाओं के पास ही है। यानी भिन्‍न-भिन्‍न दलों की राजनीति करने वाले इनके आकाओं के पास। वो यदि ये तय कर लें कि दल बदलुओं को पहले पांच साल सिर्फ और सिर्फ संगठन के लिए काम करना होगा। उसके बाद पार्टी विचार करेगी कि चुनाव लड़वाया जाए या नहीं, तो कुछ समस्‍या हल हो सकती है।
चचा की बात में दम देख उन्‍हें और थोड़ा कुरेदा तो कहने लगे- तुम्‍हीं बताओ भाई… किसी भी तरह एक मर्तबा सफल होने के बाद पूरी जिंदगी का मुकम्‍मल इंतजाम किसी दूसरे धंधे में हो सकता है क्या?
एकबार चुनकर आने का मतलब है ताजिंदगी पेंशन पाने का अधिकार, वो भी बिना कुछ किए धरे।
आम आदमी एड़ियां रगड़ रगड़ कर मर जाता है लेकिन बच्‍चों का भविष्‍य सुरक्षित नहीं कर पाता और इन हरामखोरों की हवस ही पूरी नहीं होती। अपने साथ-साथ अपनी निकम्‍मी औलादों को भी देश पर थोपते जा रहे हैं।
जैसे देश न हुआ, किसी सुल्‍तान का हरम हो गया जिसमें वो जितनी चाहें बांदियां और जितने चाहें ‘उभयलिंगी’ गुलाम पाल सकें।
चचा ने स्‍पष्‍ट किया कि वो नेताओं की औलादों को उभयलिंगी क्यों कह रहे हैं। उनकी दृष्‍टि से उभयलिंगी वो नहीं है जो प्रकृति प्रदत्त किसी शारीरिक खामी का मोहताज है, सही अर्थों में उभयलिंगी वही है जो मौकापरस्‍त है और अपनी कुत्‍सित क्रियाओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकता है।
चचा से चर्चा के बाद यह सोचकर एक सुखद अनुभूति भी हुई कि आज नहीं तो कल, राजनीतिक दलों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाने वाले ये सोचने पर जरूर मजबूर होंगे कि मत-दाता का मत बदलने से पहले उन्‍हें बदल जाना चाहिए। अन्‍यथा वो दिन दूर नहीं जब चुनाव-दर-चुनाव तमाशा देख रहे लोग इन्‍हें जूता हाथ में लेकर दौड़ाने लगेंगे और तब इनका आलिंगन करने को न कोई दल बचेगा, न दिल। फिर इनकी वो औलादें जिनकी खातिर आज ये अपनी निष्‍ठाएं कपड़ों की तरह बदलते हैं, राजनीति से हमेशा हमेशा के लिए तौबा करती नजर आएंगी।
जय हिंद, जय भारत!
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी