Tuesday 16 July 2013

लल्‍लनजी और पप्‍पूजीओं का देश

(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
टीवी सीरियल लापतागंज का एक किरदार है लल्लनजी। लल्लनजी एक सरकारी मुलाजिम हैं और उनका तकिया कलाम है- हमसे तो किसी ने कहा ही नहीं।
काम कैसा भी हो, लल्लनजी से जब तक कोई कहता नहीं है तब तक वह कुछ नहीं करते। यहां तक कि खाना-पीना, उठना-बैठना भी उनका किसी के कहे बिना नहीं होता।

इसी प्रकार का एक दूसरा टीवी सीरियल था हम आपके हैं इन-लॉज। यह सीरियल हालांकि अपनी उम्र पूरी किये बिना ही दम तोड़ गया लेकिन उसका भी एक किरदार लापतागंज के लल्लनजी से प्रभावित था।
पप्पूजी नाम के इस किरदार का तकिया कलाम था- मैं नाराज हूं। वह कभी भी किसी बात पर वक्त-बेवक्त नाराज हो जाया करता था। घर जमाई के इस किरदार की खासियत यह थी कि वह ज्यादा देर तक किसी से नाराज नहीं रह पाता था। ये बात और है कि कुछ दिनों में ही दर्शक उससे नाराज हो गए ।
आप चाहें तो इसे इत्तिफाक मान सकते हैं कि हमारी राजनीति में भी ठीक इसी प्रकार के चरित्र हैं, हालांकि राजनीति की तुलना किसी टीवी सीरियल से नहीं की जा सकती। ये बात और है कि राजनीति हमेशा से नाटक-नौटंकी तथा फिल्म वालों का पसंदीदा विषय रही है।

Sunday 19 May 2013

हमारा 'पप्‍पू' पास क्‍यों नहीं होता ?

डिस्‍क्‍लेमर: हमारे 'पप्‍पू' और 'पापे' का इस देश के किसी जिंदा या मुर्दा नेता से कोई ताल्‍लुक नहीं है। यदि इनके क्रिया-कलाप किसी नेता से मेल खाते हैं, तो यह सिर्फ इत्‍तिफाक हो सकता है। जिस तरह देश की जनता किसी नेता के आचरण को गंभीरता से नहीं लेती, इसी तरह हमारे 'पप्‍पूजी' और 'पापेजी' के आचरण को भी गंभीरता से न लिया जाए। ये दोनों सिर्फ विपक्ष के सहयोग से जनता का मनोरंजन कर रहे हैं।
(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
हमारा 'पप्‍पू' एक बार फिर फेल हो गया। कोई कहता है कि 'पप्‍पू'
शादी होने से पहले वाला वो 'कालीदास' है जो उसी शाख को काटता है जिस पर वह बैठा है, तो कोई-कोई यह भी कहता है कि पप्‍पू को शादी से पहले ही ज्ञान प्राप्‍त हो गया है और उसे किसी 'विद्योत्‍तमा' की जरूररत नहीं है।
खुद पप्‍पू भी यही कहता है कि उसके जीवन में 'विद्योत्‍तमा' का कोई महत्‍व नहीं है। वह तो यह भी कहता है कि लोग उससे 'विद्योत्‍तमा' संबंधी फालतू के सवाल करना बंद करें।
इस बीच 'पप्‍पू' की बातों के निहितार्थ कुछ-कुछ 'पापेजी' को समझ आने लगे हैं और वो स्‍वचलित मुद्रा में एक हाथ अपनी जवाहरकट जेकेट की जेब के अंदर डालकर गर्दन बिना घुमाए पत्रकारों से कहते हैं कि मुझसे कुछ मत पूछिए। पप्‍पू की गूढ़ बातों का मर्म समझिए और खुद अंदाज लगाइए कि देश को मैं आखिर किसके हवाले सौंपकर जाऊं।
पप्‍पूजी ...... नहीं बनना चाहते तो इसमें इतना परेशान होने वाली बात क्‍या है।
खाली जगह को आप खुद भर लीजिए। आप चाहें तो यहां पीएम भी भर सकते हैं।
इस बीच पार्टी के कुछ लोगों ने पप्‍पूजी को समझा दिया है कि जो कुछ बोलना और जो भी कहना, इशारों-इशारों में उसी तरह कहना जिस तरह कालीदास ने विद्योत्‍तमा से शादी के पूर्व कहा था। ऐसा करते रहोगे तो कोई तुम्‍हारी बुद्धि पर शक नहीं करेगा, सिवाय पापेजी के। पापेजी से कोई प्रॉब्‍लम नहीं है, अपने तो अपने होते हैं।
ये बात दीगर है कि स्‍वामीभक्‍त इन पार्टीजनों से भी पप्‍पूजी पूछ बैठे कि कालीदास आखिर किस चिड़िया का नाम था और वो किस पेड़ की शाख पर बैठकर उसे काट रही थी।
पार्टीजन तो जानते हैं कि पास होना पप्‍पू के बस की बात नहीं लेकिन वो करें तो करें क्‍या। वो चाहते हैं देश की आन, बान और शान तथा राजनीति में 'परिवारवाद' के प्रतीक 'पप्‍पूजी' को कैसे भी एक बार पास करवा दें।
उनकी मंशा साफ है। वह 'अतुलनीय भारत' की इस विशेषता के कायल हैं कि यहां बुद्धिमत्‍ता से पद नहीं मिलता, अलबत्‍ता पद की प्राप्‍ति के बाद हर 'पप्‍पू' पास हो जाता है। फिर पब्‍लिक यह मान लेती है कि इतने बढ़े पद को सुषोभित करने वाला व्‍यक्‍ति बुद्धिमान तो होगा ही।
कुल मिलाकर करना यह है कि पप्‍पू पास हो या ना हो लेकिन उसे पद दिलवाना है। एक बार पद मिला नहीं कि पप्‍पू हमेशा-हमेशा के लिए हो लेगा पास।
अब इसमें मात्र एक समस्‍या है, और वह समस्‍या खुद पप्‍पू पैदा कर रहा है। पप्‍पू सांकेतिक भाषा में कह रहा है कि एक आदमी देश नहीं चला सकता। एक गुजराती तो कतई नहीं चला सकता। लेकिन लोग समझ रहे हैं कि पप्‍पू खुद के बारे में बात कर रहा है।
लोगों को गलतफहमी भी यूं ही नहीं हो रही।
दरअसल पप्‍पू अपनी शादी पर आपत्‍ति की तरह इस बात पर भी आपत्‍ति करता है कि पता नहीं लोग उसे कुर्सी क्‍यों देना चाहते हैं। वह कहता है कि वह घाघ राजनेता नहीं है और इसलिए उसे कुर्सी की दरकार नहीं हैं। उसकी 'आपत्‍ति' उसके अपनों को 'विपत्‍ति' लगती है।
पप्‍पू जब कहता है कि वह 100 करोड़ लोगों को साथ लेकर कुर्सी पर बैठना चाहता है तो पार्टी के ही लोग मुंह पर हाथ रखकर कह देते हैं- शेखचिल्‍ली का उवाच ना सुना हो तो हमारे पप्‍पू को सुन लो।
इस सबके बीच मुझे ऐसा लगता है कि देश में 2 ही लोग बुद्धिमान हैं। एक वो जो अक्‍सर कहते रहते हैं कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं और दूसरा पप्‍पू जो कहता है कि 90 प्रतिशत लोग अक्‍लमंद हैं।
अब पता नहीं ये दोनों लोग खुद को नाइंटी परसेंट में रखते हैं या टेन परसेंट में। बहुमत के साथ हैं या अल्‍पमत के साथ।
जो भी हो, पर पप्‍पू के पास न हो पाने से पापेजी की खुशी छिपाए नहीं छिप रही। वह मंद-मंद मुस्‍कराते महसूस किये जा सकते हैं और मन ही मन कह रहे हैं- वाह रब, तेरी मेहर जिस पर हो उसकी लॉटरी बिना नंबर लगाए भी खुल सकती है। वह भी एक बार नहीं, तीन-तीन बार।
यूं भी खुद अपने पैरों पर चलने लायक रहो या ना रहो, सरकार चलती रहती है क्‍योंकि यहां दो वैशाखियां 'मस्‍ट' नहीं हैं। यह भी जरूरी नहीं कि चलकर या बैठकर सरकार चलाई जाए। वैशाखियों से बनाई गई अर्थी पर लेटकर भी सरकार चलती है। भरोसा ना हो तो दिल्‍ली की ओर देख लो। नंगी आंखों से नहीं देख पा रहे हो तो सरकारी बाइस्‍कोप से देख लो, सब समझ में आ जाएगा।
यह भी कि पप्‍पू क्‍यों पास नहीं होना चाहता और पापेजी क्‍यों फेल होने को तैयार नहीं।
 

Sunday 12 May 2013

प्‍लीज ! ''उल्‍लुओं'' को दोष मत दो


  यायावर- फटे ढोल के संग
बर्बाद गुलिस्‍तां करने को, जब एक ही उल्‍लू काफी हो ।
अंजामे गुलिस्‍तां क्‍या होगा, हर शाख पर उल्‍लू बैठा है ।।
मुझे नहीं मालूम कि ये पंक्‍ितयां कब तथा किस परिपेक्ष्‍य में लिखी गयी थीं लेकिन इतना जरूर पता है कि स्‍वतंत्रता मिलने के बाद से इनका इस्‍तेमाल अक्‍सर उन लोगों के लिए किया जाता रहा है जिन्‍हें हम ''नेता'' कहते हैं और जो खुद को देश का कर्णधार एवं भाग्‍य विधाता मानते रहे हैं।
आज में एक ऐसी कहानी आपके लिए लिख रहा हूं जो शायद इस सर्वमान्‍य धारणा को बदल सके और समझा सके कि किसी चमन की बर्बादी के पीछे वास्‍तविक कारण क्‍या होते हैं।
कहानी कुछ इस तरह है कि किसी जंगल में हंस-हंसिनी का एक जोड़ा वर्षों से रहा करता था। जंगल बहुत हरा-भरा होने के कारण उनका जीवन बड़े आनंदपूर्वक व्‍यतीत हो रहा था। एक साल उस जंगल में भयानक सूखा पड़ा। पेड़-पौधों के साथ-साथ पानी के सारे साधन सूख गये। यहां तक कि पशु-पक्षियों के पीने लायक पानी भी नहीं बचा।

जीवन पर छाये इस संकट को देखकर हंसिनी ने हंस से कहा- क्‍यों न हम थोड़े समय के लिए कहीं और चलें। कुछ समय बाद लौट आयेंगे। हो सकता है तब तक हालात सुधर जाएं।
हंस को हंसिनी की सलाह पसंद आयी। वह कहने लगा- ठीक है, इस तरह हमारा घूमना हो जायेगा और संकट भी शायद टल जाए।
परस्‍पर सहमति के बाद हंस-हंसिनी का वह जोड़ा एक लम्‍बी यात्रा के लिए उड़ चला। शाम घिरने तथा थकान महसूस करने पर हंसिनी ने हंस से कहा- प्रियतम, मैं चाहती हूं कि हम रात किसी गांव में बिता लें। सुबह होते ही फिर उड़ चलेंगे। हंस चूंकि अपनी हंसिनी को बेहद प्‍यार करता था इसलिए उसकी हर बात मानता था। हंस ने कहा- ठीक है। जैसे ही कोई गांव नजर आयेगा, हम वहां रुक जायेंगे।
थोड़ी देर बाद एक गांव दिखाई दिया तो हंस-हंसिनी का यह जोड़ा वहां एक पेड़ पर उतर गया लेकिन हंस को वह जगह कुछ पसंद नहीं आयी। गांव की दुर्दशा देखकर हंस कहने लगा- प्रिये, ऐसा लगता है कि इस गांव में उल्‍लुओं का डेरा है। पूरा गांव बड़ा उजाड़ सा लग रहा है।
हंस द्वारा कही गयी इस बात को सामने के पेड़ पर बैठा एक उल्‍लू सुन रहा था। उसे हंस की बात बहुत नागवार गुजरी। उसने मन ही मन हंस को सबक सिखाने का निश्‍चय किया।
भोर होने पर हंस और हंसिनी जब अपने गंतव्‍य की ओर जाने की तैयारी करने लगे तो उल्‍लू उनके पास पहुंचा और हंस से बोला- कहो भाई, कैसे हो और कहां जाने की तैयारी कर रहे हो।
उल्‍लू के प्रश्‍न पर हंस ने उसे बताया कि वह अपनी पत्‍नी (हंसिनी) के साथ कहां जाने को निकला है और थकान व रात अधिक होने के कारण इस गांव में रुक गया था।
उल्‍लू को बस इसी बात का इंतजार था। हंस द्वारा हंसिनी को अपनी पत्‍नी कहे जाने पर उल्‍लू ने एतराज जताया और कहा कि जिसे तुम अपनी पत्‍नी बता रहे हो, वह तो मेरी पत्‍नी है। तुम कहीं भी जाने के लिए स्‍वतंत्र हो पर मेरी पत्‍नी को कैसे अपने साथ ले जा सकते हो।
उल्‍लू के इस कथन पर हंस के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा और वह बोला- मेरे भाई, तुम्‍हें कुछ गलतफहमी हुई है। जरा सोचो तो, कोई हंसिनी किसी उल्‍लू की पत्‍नी कैसे हो सकती है।
हंसिनी ने जब हंस के पक्ष में कुछ कहना चाहा तो उल्‍लू ने उस पर बेवफाई व चरित्रहीनता का आरोप लगाते हुए उसे चुप रहने के लिए मजबूर कर दिया। हंस समझ चुका था कि वह किसी बड़ी मुसीबत में फंस गया है लेकिन वह करता भी क्‍या।
हंस को चिंतातुर देख उल्‍लू ने तुरंत मौके का फायदा उठाने की सोची और कहा- बड़े भाई, ये हंसिनी मेरी ही पत्‍नी है और पिछले कई सालों से इसी गांव में मेरे साथ रहती है।
हंस दु:खी होकर बोला- यह कैसे संभव है, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा।
उल्‍लू जान गया कि तीर सही जगह लगा है अत: उसने तुरंत दूसरी चाल चली। वह कहने लगा- देखो भाई, यदि तुम्‍हें मेरी बात पर भरोसा न हो तो गांव के पंचों को बुला लाता हूं। वो जो भी फैसला दें, मैं मान लूंगा बशर्ते तुम्‍हें भी उनका फैसला मंजूर हो।
मरता क्‍या न करता। हंस को उल्‍लू का प्रस्‍ताव स्‍वीकार करना पड़ा। उल्‍लू आखिर यही तो चाहता था। उसने कहा- मैं अभी गांव जाकर पंचों को बुला लाता हूं।
हंस को इंतजार करने के लिए कहकर उल्‍लू गांव में गया और गांव वालों से बोला- मैं लक्ष्‍मी का वाहन उल्‍लू पिछले कई वर्षों से गांव के बाहर वाले पेड़ पर रात-रातभर जागकर आप सब की हिफाजत करता रहा हूं और लक्ष्‍मीजी से आपके सुख तथा समृद्धि की कामना करता हूं। आज तक आप अगर गांव में रह पा रहे हैं तो मेरे कारण किंतु आज मुझे तुम्‍हारी जरूरत आ पड़ी है। तुम यदि मेरी इस समय मामूली सी सहायता कर दोगे तो मैं बदले में न केवल हमेशा-हमेशा के लिए तुम्‍हारी इसी प्रकार सुरक्षा करता रहूंगा बल्‍िक लक्ष्‍मीजी से तुम्‍हारे और सुख व समृद्धि की सिफारिश भी करूंगा।
उल्‍लू की बातों के जाल में फंसकर गांव वालों ने पूछा- बताओ हमें करना क्‍या है।
उल्‍लू ने गांव वालों को ऐसा पाठ पढ़ा दिया जिससे उसका मकसद पूरी तरह सफल होता था। सारी बात समझाने के बाद उल्‍लू उन्‍हें अपने साथ हंस-हंसिनी के पास ले गया और ऊंची आवाज में पूछने लगा- हे इस गांव के पंच परमेश्‍वरो, जरा बताओ कि क्‍या तुम इस हंस के साथ बैठी हंसिनी को पहचानते हो ?
उल्‍लू के इस प्रश्‍न पर पहले से उसके द्वारा सिखाये-पढ़ाये गांव वाले एक स्‍वर से बोले- हां भाई, हम इसे कैसे नहीं पहचानेंगे। ये तुम्‍हारी पत्‍नी है।
उल्‍लू ने तुरंत दूसरा प्रश्‍न किया- तुम लोग इसे मेरे साथ रहते कब से देख रहे हो ?
गांव वालों ने कहा- यही कोई दो दशक से।
फैसला उल्‍लू के पक्ष में उसके मन मुताबिक हो चुका था इसलिए उसने गांव वालों को धन्‍यवाद देकर वापस जाने के लिए कहा। जब गांव वाले चले गये। हंस भी अत्‍यंत दु:खी मन से जब जाने लगा तो उल्‍लू बोला- बड़े भाई, क्‍या आप जान पाये कि आपको किस बात की सजा मिली है। आप अपनी किस गलती के कारण इस दशा को प्राप्‍त हुए हो।
उल्‍लू के ऐसा पूछे जाने पर हंस ने कहा- नहीं, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया।
हंस के भोलेपन पर उल्‍लू ने उसे बताया कि रात को जब तुम अपने जोड़े सहित इस गांव में उतरे तो तुमने गांव के उजाड़ होने की वजह यहां उल्‍लुओं का बसेरा होना बताया था जो उसे बहुत ही बुरा लगा।
उल्‍लू बोला- भाईजान, अब मेरी बात ध्‍यान से सुनो। सच तो यह है कि कोई गांव हो या देश, वह कभी उल्‍लुओं के कारण उजाड़ नहीं होता। उल्‍लू तो सुख, समृद्धि व वैभव की देवी लक्ष्‍मी का वाहन है। वह किसी को नहीं उजाड़ता।
कोई देश, कोई गांव, कोई स्‍थान यदि उजड़ता है तो ऐसे लोगों के कारण जैसे इस गांव के वासी हैं। ये लोग मेरी एक झूठी कहानी पर मेरे साथ चले आये और जो मैंने सिखाया-पढ़ाया था, वही कह दिया। अपनी बुद्धि का जरा सा भी इस्‍तेमाल नहीं किया कि आखिर कैसे कोई हंसिनी, किसी उल्‍लू की पत्‍नी हो सकती है। कैसे कोई उल्‍लू उनकी व उनके गांव की रक्षा कर सकता है।
उल्‍लू ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- जिस जंगल से तुम आये हो, बात चाहे वहां सूखा पड़ने की हो या इस गांव के उजाड़ पड़े रहने की, इस सबका कारण ऐसे ही अकर्मण्‍य तथा लालची लोग हैं जो अपने बुद्धि और विवेक का इस्‍तेमाल किये बिना मेरे जैसे स्‍वार्थी उल्‍लुओं के बहकावे में आकर कुछ भी कहने तथा करने को तत्‍पर रहते हैं।
जो अपने आश्रित मां-बाप की जरूरतों को तो पूरा नहीं करते लेकिन देश को रसातल में ले जाने वाले राजनेताओं की जयंती और पुण्‍यतिथियां पूरी शिद्दत के साथ मनाते हैं। अपने मां-बाप को प्रताड़ित करने में लज्‍जा महसूस नहीं करते और नेताओं की चरणवंदना करना सौभाग्‍य मानते हैं। उन्‍हें मालाएं पहनाते हैं लेकिन मां-बाप के लिए प्‍यार के दो शब्‍द नहीं बोलते।
उल्‍लू ने कहा- निजी स्‍वार्थों की पूर्ति में लिप्‍त जिस देश, जिले या गांव के लोग सत्‍य को सत्‍य कहने की हिम्‍मत खो चुके हों। झूठे, मक्‍कार तथा आकण्‍ठ भ्रष्‍टाचार में डूबे लोगों की जय-जयकार करते हों। अंधानुकरण करने में गौरव महसूस करते हों और स्‍वाभिमान का जिन्‍हें रत्‍तीभर भान न हो, उन्‍हें बर्बादी से कोई बचा भी नहीं सकता।
उल्‍लू बोला- बड़े भाई आपने देखा कि किस तरह इस गांव का मुखिया मेरे पक्ष में गांव वालों को लेकर सफेद झूठ बोलने चला आया। अब तो आपको समझ में आ गया होगा कि यह गांव उल्‍लुओं के कारण नहीं, खुद गांव वालों के कारण बर्बाद है।
रही बात आपकी हंसिनी की, तो वह आपकी पत्‍नी है और आपकी ही रहेगी। वह मेरी पत्‍नी हो भी कैसे सकती है लेकिन यह सामान्‍य सी बात गांव वालों ने नहीं समझी और स्‍वार्थवश गढ़ी गयी मेरी कहानी पर यकीन करके झूठ बोलने चले आये।
उसने कहा- आप जाओ, आप दोनों की यात्रा मंगलमय हो लेकिन हो सके तो फिर कभी देश, गांव या स्‍थान विशेष की बर्बादी का कारण उल्‍लुओं को मत मानना।
किसी दरख्‍़त की शाख पर बैठे हुए उल्‍लू अगर कोई निजी लाभ उठा पाते हैं, जैसे मैंने तुम्‍हारी पत्‍नी को अपनी पत्‍नी घोषित कराने के लिए उठाया तो वह ऐसे गांव वालों के कारण ही संभव है क्‍यों कि असली उल्‍लू तो यही हैं। बर्बादी के मूल कारण भी यही हैं। इन्‍हीं की वजह से गुलिस्‍तां बर्बाद होते हैं।
यह कहानी तो यहीं समाप्‍त होती है। मैं उम्‍मीद करता हूं कि इस कहानी में छिपे मर्म को आप समझ गये होंगे।
भारत की बर्बादी इसकी हर शाख पर बैठे उल्‍लुओं के कारण नहीं, हम और आप जैसे लोगों के कारण हो रही है जो इतनी मामूली सी बात नहीं समझ पा रहे कि जिस सरकार का मुखिया अपने ही मंत्रियों द्वारा अरबों-खरबों के भ्रष्‍टाचार को तमाशबीन बनकर देखता रहा हो वह खुद कैसे ईमानदार हो सकता है।
ऐसा दो ही स्‍थितियों में संभव है। पहली ये कि वह खुद उस भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त हो और दूसरी ये कि वह इतना कमजोर हो कि उस पद के लिए डिजर्व ही न करता हो।
अगर हम यह नहीं समझ पा रहे कि कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के आयोजन में किया गया घपला हो या आदर्श सोसायटी के मकानों का आवंटन करने में किया गया मोटा खेल, यह सब शाख पर बैठे उल्‍लुओं की हां में हां मिलाते रहने का नतीजा है। बसपा हो या सपा, भाजपा हो या कांग्रेस, रालोद हो या कोई दूसरी राष्‍ट्रीय अथवा क्षेत्रीय पार्टी और उनके मुखिया, सब गरीबों की राजनीति का ढिंढोरा पीटकर नोटों के सिंहासन पर कुंडली मारकर इसलिए बैठे हैं क्‍योंकि हम-आप जैसे उल्‍लू उनकी दिन-रात हिफाजत कर रहे हैं। उल्‍लू अपने आप में कोई क्षमता नहीं रखते। उनकी क्षमता हम और आप जैसे लोगों में निहित है जो आमजन कहलाते हैं।
तभी तो एक व्‍यक्‍ित अपनी जान-जोखिम में डालकर भी भरपेट रोटी नहीं खा पाता और एक आदमी की हवस अरबों रूपये डकार कर भी पूरी नहीं हो पाती। एक आदमी अपनी खेती की जमीन का समुचित मुआवजा मांगने के नाम पर पुलिस की गोली खाता है और एक आदमी देश को बेचकर खा जाता है लेकिन पकड़ा नहीं जाता। एक आदमी सत्‍ता के शिखर पर बैठकर कानून-व्‍यवस्‍था का मजाक उड़ाता है और एक आदमी की पूरी जिंदगी न्‍याय की आस में इसलिए बीत जाती है क्‍योंकि वह कानून-व्‍यवस्‍था पर भरोसा किये बैठा है। देश और प्रदेश के शासक वर्ग में शुमार नेता हों या विपक्षी कहलाने वाले उनके सहोदर, सबके सब अकूत संपत्‍ति के मालिक होते हुए हर प्रकार की जवाबदेही से परे हैं लेकिन आम आदमी अपनी तनख्‍वाह का हिसाब देने को बाध्‍य है। वह वेतन-भत्‍ते बढ़ाने की मांग करता है तो पिटता है लेकिन सांसद-विधायक खुद अपना वेतन-भत्‍ता बढ़ा लेने को स्‍वतंत्र हैं। कैसे हो रहा है यह सब, क्‍यों हम खोखली तरक्‍की पर ताली बजा रहे हैं जबकि हमारे नेता हमारी बेबसी पर अट्टहास कर रहे हैं।
इसीलिए कि असल उल्‍लू वो नहीं जो हर शाख पर काबिज हैं। असल उल्‍लू हम हैं जो उनकी हां में हां मिला रहे हैं। उनकी जय-जयकार कर रहे हैं। अपने जीवित मां-बाप की इच्‍छाओं तक का सम्‍मान नहीं कर रहे और मर चुके नेताओं की तस्‍वीरों पर माला चढ़ा रहे हैं। उनकी पूजा कर रहे हैं।
हमें समझना होगा कि देश को बर्बाद न कोई एक उल्‍लू कर सकता है और ना उसकी शाखों पर बैठे तमाम उल्‍लू इसका कुछ बिगाड़ सकते हैं बशर्ते हम अपनी अकर्मण्‍यता, अपने स्‍वार्थ, एक-दूसरे के प्रति थोपी गई दुर्भावना, वैमनस्‍यता, ईर्ष्‍या, द्वेष, जातिवाद, सांप्रदायिकता, तरक्‍की के लिए गलत रास्‍तों को अपना लेने की प्रवृत्‍ति, थोथा अहंकार, धन की खातिर अंधी दौड़ में शामिल होने की लत, ज्‍यादा से ज्‍यादा और जल्‍दी से जल्‍दी धन कमाने की हवस जैसे दुर्गुणों को त्‍यागकर ''सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया..पर अमल करें।
हमें समझना होगा कि देश की वास्‍तविक तरक्‍की तभी होगी जब आम आदमी तरक्‍की करेगा। विदेशों में जमा किया गया भ्रष्‍टाचार का धन, नेताओं और अफसरों द्वारा दोनों हाथ से की जा रही काली कमाई, उनकी व उनके पिठ्ठुओं की शान-शौकत देश की तरक्‍की का पैमाना कभी नहीं हो सकती। उंगलियों पर गिने जाने लायक लोगों का नाम किसी विशेष पत्रिका में छप जाने से देश समृद्ध नहीं हो जाता। देश की तरक्‍की, देश की समृद्धि उसके आमजन की तरक्‍की व समृद्धि में निहित है और यह तभी संभव है जब हम बर्बाद तथा आबाद होने के नये ''शेर'' रचें। आज के हालातों के मद्देनजर नई परिभाषा गढ़ें। अपने भाग्‍य विधाता खुद बनें, किसी और के रहमो-करम पर जिंदा न रहें। लक्ष्‍मी के उपासक जरूर बनें लेकिन उल्‍लुओं के नहीं, क्‍योंकि गरुण पर सवार लक्ष्‍मी विष्‍णु यानी धर्म के साथ आती है और जब वह अकेली आती है तो जिस पर आती है, उसे सर्वप्रथम उल्‍लू बनाती है।
अब यह तय हमें करना है कि लक्ष्‍मी को पूजें या उल्‍लुओं को पूजते रहें। देश की बर्बादी का दोष उल्‍लुओं के माथे मढ़ें या अपने गिरेबां में झांककर देखें।