(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
टीवी सीरियल लापतागंज का एक किरदार है लल्लनजी। लल्लनजी एक सरकारी मुलाजिम हैं और उनका तकिया कलाम है- हमसे तो किसी ने कहा ही नहीं।
काम कैसा भी हो, लल्लनजी से जब तक कोई कहता नहीं है तब तक वह कुछ नहीं करते। यहां तक कि खाना-पीना, उठना-बैठना भी उनका किसी के कहे बिना नहीं होता।
इसी प्रकार का एक दूसरा टीवी सीरियल था हम आपके हैं इन-लॉज। यह सीरियल हालांकि अपनी उम्र पूरी किये बिना ही दम तोड़ गया लेकिन उसका भी एक किरदार लापतागंज के लल्लनजी से प्रभावित था।
पप्पूजी नाम के इस किरदार का तकिया कलाम था- मैं नाराज हूं। वह कभी भी किसी बात पर वक्त-बेवक्त नाराज हो जाया करता था। घर जमाई के इस किरदार की खासियत यह थी कि वह ज्यादा देर तक किसी से नाराज नहीं रह पाता था। ये बात और है कि कुछ दिनों में ही दर्शक उससे नाराज हो गए ।
आप चाहें तो इसे इत्तिफाक मान सकते हैं कि हमारी राजनीति में भी ठीक इसी प्रकार के चरित्र हैं, हालांकि राजनीति की तुलना किसी टीवी सीरियल से नहीं की जा सकती। ये बात और है कि राजनीति हमेशा से नाटक-नौटंकी तथा फिल्म वालों का पसंदीदा विषय रही है।
आप इसे भी इत्तिफाक मान सकते हैं कि लापतागंज के लल्लनजी से हूबहू मेल खाता एक किरदार तो देश के महत्वपूर्ण पद पर काबिज है और वह भी तब तक कुछ नहीं करता जब तक उससे कहा नहीं जाता।
कॉमनवेल्थ गेम्स में घोटाला हुआ, वह कुछ नहीं बोला। लोगों ने पूछा- इतना बड़ा घोटाला हुआ है, आप बोलते क्यों नहीं?
उसका रटा-रटाया जवाब था- हमसे तो किसी ने कहा ही नहीं।
लोग कहने लगे- चलो हम कह देते हैं, अब बोलो।
इस पर उनका जवाब था- हम कोई लल्लनजी हैं कि किसी के भी कहने पर बोल पड़ें। जब तक मैडम जी नहीं कहेंगी, हम कुछ नहीं बोलेंगे।
इसके बाद 2G स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ, फिर कोयला घोटाला हुआ लेकिन वह तब तक चुप्पी साधे रहे जब तक मैडमजी ने बोलने को नहीं कहा।
मैडमजी ने कहा तो उत्तराखण्ड की आपदा पर हवाई सर्वेक्षण करके शोक जता दिया और महाबोधि मंदिर पर हुए आतंकी हमले की निंदा कर दी।
रही बात ऐसे ही दूसरे किरदार पप्पूजी की, तो राजनीति के पप्पूजी भी बात-बात पर मुंह फुलाकर बैठ जाते हैं।
पार्टीजन जब उनसे पूछते हैं कि पप्पूजी आज ये आपका चेहरा फूला हुआ क्यों लग रहा है, तो वह तपाक से कह देते हैं- मैं नाराज हूं।
पार्टीजन उनसे उनकी नाराजगी का कारण पूछते हैं तो वह यह बताने में कतई संकोच नहीं करते कि मेरे रहते पार्टी किसी और को 2014 के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कैसे घोषित कर सकती है।
पार्टीजन उन्हें यह समझाने की कोशिश करते हैं कि अभी पीएम पद के उम्मीदवार की घोषणा करने का सही समय नहीं आया है इसलिए आपसे नहीं पूछा गया, तो उनका उत्तर होता है- मैं नाराज हूं क्योंकि मुझे अब तक पार्टी ने पीएम पद का उम्मीदवार घोषित क्यों नहीं किया।
पार्टीजन एक असफल प्रयास यह बताकर और करते हैं कि पप्पूजी आपकी उम्र हो गई है। आपके कांधे अब देश का भार उठाने की क्ष्ामता नहीं रखते। अब तो आपको खुद किसी भी दिन चार कांधों के सहारे की जरूरत पड़ सकती है इसलिए नाराज होना छोड़िये और देश तथा पार्टी का कुछ भार कम कीजिए।
तात्कालिक रूप से बात कुछ पप्पूजी के गले उतरती है लेकिन आदत से मजबूर पप्पूजी चार दिन बाद फिर मुंह फुला लेते हैं और कहते हैं- मैं नाराज हूं।
लल्लनजी जी हों या पप्पूजी, उनकी प्रॉब्लम यह है कि वह शतरंज के मोहरों की तरह उतने ही घर चल सकते हैं, जितने उनके दिमाग की चिप में फिट कर दिये गये हैं क्योंकि सबके अपने-अपने रिमोट हैं और सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां।
यूं भी राजनीति में ऐसे लोगों का क्या काम जो अपनी बुद्धि लगाना जानते हों। कोई काडर से बंधा है तो कोई नीति से। कोई विचारों के स्तर पर गुलाम है तो कोई सोच के स्तर पर। कहने का मतलब यह है कि राजनीति का दूसरा मतलब ही है मानसिक गुलामी। स्वतंत्र विचार व्यक्त करने की आजादी, राजनीति और राजनीतिक दल नहीं देते। मानसिक गुलामी के बिना कोई किसी राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं हो सकता।
ये बात और है कि अपवाद यहां भी मिल जाते हैं। जैसे लल्लनजी और पप्पूजी के ठीक उलट एक दुर्जन ऐसे भी हैं जिनकी जुबान बेलगाम है। वह कभी भी और कहीं भी कुछ भी बोलने को स्वतंत्र हैं। उन्हें टि्वटेरिया रोग है। हाल ही में उन्होंने महाबोधि मंदिर में हुए आतंकी हमले को लेकर ऐसा ट्वीट कर डाला जिसने पानी में आग लगा दी। उनके अनर्गल प्रलाप को देखते हुए पार्टी अक्सर उनके बयानों से पल्ला झाड़ती रहती है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पार्टी ने उनकी खातिर बाकायदा एक पल्लाझाड़ नीति बना रखी है, हालांकि वो जो कुछ बोलते हैं पार्टी आलाकमान की पूर्ण सहमति से ही बोलते हैं। आप उन्हें और उनके ट्वीट्स को पार्टी की पल्लाझाड़ नीति का हिस्सा मान सकते हैं क्योंकि तमाम स्थिति-परिस्थितियों के मद्देनजर पार्टी उनके खिलाफ पल्लाझाड़ नीति बेशक इस्तेमाल करती है पर उनसे पल्ला नहीं झाड़ती क्योंकि उनके जैसा नायाब नमूना दूसरी किसी पार्टी में नहीं है। वह ऐसे पीस हैं जिसका पेयर मिलना असंभव न सही, रेअरेस्ट अवश्य है।
मेरी समझ में अब यह नहीं आ रहा कि लापतागंज के लल्लनजी और हम आपके हैं इन-लॉज के पप्पूजी तो बेचारे दिहाड़ी मजदूर हैं जो अपने किरदार के हिसाब से मजदूरी लेते हैं तथा उसी के अनुरूप डायलॉग डिलीवर करते हैं। उनके कुछ बोलने या ना बोलने तथा नाराज हो जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, उल्टा लोगों का मनोरंजन होता है पर जो लल्लनजी-पप्पूजी देश चला रहे हैं अथवा 2014 से देश चलाने को बेताब हैं, उनके नाटकीय किरदार अवश्य देश व देशवासियों पर भारी पड़ रहे हैं।
बिना पूंछ वाले बेलगाम नेता तो विदूषक की तरह जनता का एंटरटेनमेंट ही करते हैं पर पूंछ तथा लगाम वाले नेता जनता की तकलीफों से मनोरंजन करते हैं। दिस इज वेरी बेड। यह आदत अच्छी नहीं।
कहीं ऐसा न हो कि रिमोट और उसकी कंट्रोलिंग पॉवर दोनों को जनता गुस्से में छीन ले और तब न लल्लनजी रहें, न पप्पूजी।
निश्चित ही वह दिन जनता का होगा क्योंकि उस दिन सारे नाटकों का पर्दा जनता गिरायेगी। जय हिंद, जय भारत।
टीवी सीरियल लापतागंज का एक किरदार है लल्लनजी। लल्लनजी एक सरकारी मुलाजिम हैं और उनका तकिया कलाम है- हमसे तो किसी ने कहा ही नहीं।
काम कैसा भी हो, लल्लनजी से जब तक कोई कहता नहीं है तब तक वह कुछ नहीं करते। यहां तक कि खाना-पीना, उठना-बैठना भी उनका किसी के कहे बिना नहीं होता।
इसी प्रकार का एक दूसरा टीवी सीरियल था हम आपके हैं इन-लॉज। यह सीरियल हालांकि अपनी उम्र पूरी किये बिना ही दम तोड़ गया लेकिन उसका भी एक किरदार लापतागंज के लल्लनजी से प्रभावित था।
पप्पूजी नाम के इस किरदार का तकिया कलाम था- मैं नाराज हूं। वह कभी भी किसी बात पर वक्त-बेवक्त नाराज हो जाया करता था। घर जमाई के इस किरदार की खासियत यह थी कि वह ज्यादा देर तक किसी से नाराज नहीं रह पाता था। ये बात और है कि कुछ दिनों में ही दर्शक उससे नाराज हो गए ।
आप चाहें तो इसे इत्तिफाक मान सकते हैं कि हमारी राजनीति में भी ठीक इसी प्रकार के चरित्र हैं, हालांकि राजनीति की तुलना किसी टीवी सीरियल से नहीं की जा सकती। ये बात और है कि राजनीति हमेशा से नाटक-नौटंकी तथा फिल्म वालों का पसंदीदा विषय रही है।
आप इसे भी इत्तिफाक मान सकते हैं कि लापतागंज के लल्लनजी से हूबहू मेल खाता एक किरदार तो देश के महत्वपूर्ण पद पर काबिज है और वह भी तब तक कुछ नहीं करता जब तक उससे कहा नहीं जाता।
कॉमनवेल्थ गेम्स में घोटाला हुआ, वह कुछ नहीं बोला। लोगों ने पूछा- इतना बड़ा घोटाला हुआ है, आप बोलते क्यों नहीं?
उसका रटा-रटाया जवाब था- हमसे तो किसी ने कहा ही नहीं।
लोग कहने लगे- चलो हम कह देते हैं, अब बोलो।
इस पर उनका जवाब था- हम कोई लल्लनजी हैं कि किसी के भी कहने पर बोल पड़ें। जब तक मैडम जी नहीं कहेंगी, हम कुछ नहीं बोलेंगे।
इसके बाद 2G स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ, फिर कोयला घोटाला हुआ लेकिन वह तब तक चुप्पी साधे रहे जब तक मैडमजी ने बोलने को नहीं कहा।
मैडमजी ने कहा तो उत्तराखण्ड की आपदा पर हवाई सर्वेक्षण करके शोक जता दिया और महाबोधि मंदिर पर हुए आतंकी हमले की निंदा कर दी।
रही बात ऐसे ही दूसरे किरदार पप्पूजी की, तो राजनीति के पप्पूजी भी बात-बात पर मुंह फुलाकर बैठ जाते हैं।
पार्टीजन जब उनसे पूछते हैं कि पप्पूजी आज ये आपका चेहरा फूला हुआ क्यों लग रहा है, तो वह तपाक से कह देते हैं- मैं नाराज हूं।
पार्टीजन उनसे उनकी नाराजगी का कारण पूछते हैं तो वह यह बताने में कतई संकोच नहीं करते कि मेरे रहते पार्टी किसी और को 2014 के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कैसे घोषित कर सकती है।
पार्टीजन उन्हें यह समझाने की कोशिश करते हैं कि अभी पीएम पद के उम्मीदवार की घोषणा करने का सही समय नहीं आया है इसलिए आपसे नहीं पूछा गया, तो उनका उत्तर होता है- मैं नाराज हूं क्योंकि मुझे अब तक पार्टी ने पीएम पद का उम्मीदवार घोषित क्यों नहीं किया।
पार्टीजन एक असफल प्रयास यह बताकर और करते हैं कि पप्पूजी आपकी उम्र हो गई है। आपके कांधे अब देश का भार उठाने की क्ष्ामता नहीं रखते। अब तो आपको खुद किसी भी दिन चार कांधों के सहारे की जरूरत पड़ सकती है इसलिए नाराज होना छोड़िये और देश तथा पार्टी का कुछ भार कम कीजिए।
तात्कालिक रूप से बात कुछ पप्पूजी के गले उतरती है लेकिन आदत से मजबूर पप्पूजी चार दिन बाद फिर मुंह फुला लेते हैं और कहते हैं- मैं नाराज हूं।
लल्लनजी जी हों या पप्पूजी, उनकी प्रॉब्लम यह है कि वह शतरंज के मोहरों की तरह उतने ही घर चल सकते हैं, जितने उनके दिमाग की चिप में फिट कर दिये गये हैं क्योंकि सबके अपने-अपने रिमोट हैं और सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां।
यूं भी राजनीति में ऐसे लोगों का क्या काम जो अपनी बुद्धि लगाना जानते हों। कोई काडर से बंधा है तो कोई नीति से। कोई विचारों के स्तर पर गुलाम है तो कोई सोच के स्तर पर। कहने का मतलब यह है कि राजनीति का दूसरा मतलब ही है मानसिक गुलामी। स्वतंत्र विचार व्यक्त करने की आजादी, राजनीति और राजनीतिक दल नहीं देते। मानसिक गुलामी के बिना कोई किसी राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं हो सकता।
ये बात और है कि अपवाद यहां भी मिल जाते हैं। जैसे लल्लनजी और पप्पूजी के ठीक उलट एक दुर्जन ऐसे भी हैं जिनकी जुबान बेलगाम है। वह कभी भी और कहीं भी कुछ भी बोलने को स्वतंत्र हैं। उन्हें टि्वटेरिया रोग है। हाल ही में उन्होंने महाबोधि मंदिर में हुए आतंकी हमले को लेकर ऐसा ट्वीट कर डाला जिसने पानी में आग लगा दी। उनके अनर्गल प्रलाप को देखते हुए पार्टी अक्सर उनके बयानों से पल्ला झाड़ती रहती है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पार्टी ने उनकी खातिर बाकायदा एक पल्लाझाड़ नीति बना रखी है, हालांकि वो जो कुछ बोलते हैं पार्टी आलाकमान की पूर्ण सहमति से ही बोलते हैं। आप उन्हें और उनके ट्वीट्स को पार्टी की पल्लाझाड़ नीति का हिस्सा मान सकते हैं क्योंकि तमाम स्थिति-परिस्थितियों के मद्देनजर पार्टी उनके खिलाफ पल्लाझाड़ नीति बेशक इस्तेमाल करती है पर उनसे पल्ला नहीं झाड़ती क्योंकि उनके जैसा नायाब नमूना दूसरी किसी पार्टी में नहीं है। वह ऐसे पीस हैं जिसका पेयर मिलना असंभव न सही, रेअरेस्ट अवश्य है।
मेरी समझ में अब यह नहीं आ रहा कि लापतागंज के लल्लनजी और हम आपके हैं इन-लॉज के पप्पूजी तो बेचारे दिहाड़ी मजदूर हैं जो अपने किरदार के हिसाब से मजदूरी लेते हैं तथा उसी के अनुरूप डायलॉग डिलीवर करते हैं। उनके कुछ बोलने या ना बोलने तथा नाराज हो जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, उल्टा लोगों का मनोरंजन होता है पर जो लल्लनजी-पप्पूजी देश चला रहे हैं अथवा 2014 से देश चलाने को बेताब हैं, उनके नाटकीय किरदार अवश्य देश व देशवासियों पर भारी पड़ रहे हैं।
बिना पूंछ वाले बेलगाम नेता तो विदूषक की तरह जनता का एंटरटेनमेंट ही करते हैं पर पूंछ तथा लगाम वाले नेता जनता की तकलीफों से मनोरंजन करते हैं। दिस इज वेरी बेड। यह आदत अच्छी नहीं।
कहीं ऐसा न हो कि रिमोट और उसकी कंट्रोलिंग पॉवर दोनों को जनता गुस्से में छीन ले और तब न लल्लनजी रहें, न पप्पूजी।
निश्चित ही वह दिन जनता का होगा क्योंकि उस दिन सारे नाटकों का पर्दा जनता गिरायेगी। जय हिंद, जय भारत।
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