Tuesday 1 June 2021

UP विधानसभा चुनाव: अबकी बार, किसकी सरकार.. योगी, भोगी या फिर मनोरोगी


 2021 में कोरोना के बीच चूंकि पांच राज्‍यों के चुनाव हो चुके हैं इसलिए पूरी उम्‍मीद है कि परिस्‍थितियां चाहे जैसी हों किंतु 2022 में भी जहां-जहां चुनाव होने हैं, वहां होकर रहेंगे।

हों भी क्‍यों नहीं। हमारे देश में चुनाव एक उत्‍सव की तरह होते हैं, काम की तरह नहीं। कोरोना जैसी मनहूसियत के चलते ऐसे उत्‍सव होते रहने चाहिए। और भी तो बहुत कुछ हो रहा है… हो चुका है और होता रहेगा, तो चुनाव कराने में हर्ज ही क्‍या है।
बहरहाल, मुद्दे की बात यह है कि 2022 के शुरू में ही देश के सबसे महत्‍वपूर्ण राज्‍य UP के विधानसभा चुनाव होने हैं।
चुनाव होने में हालांकि अभी कुछ महीने बाकी हैं लेकिन सवाल हवा में तैरने लगे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि अबकी बार, किसकी सरकार।
सवाल के जवाब में भी एक सवाल बड़ा रोचक उछल रहा है। यह सवाल है कि योगी, भोगी या फिर मानसिक रोगी। प्रतिप्रश्‍न वाजिब भी है और समयानुकूल भी।
दरअसल, पहले तो सत्ता की इस लड़ाई में सिर्फ और सिर्फ झकाझक सफेद कपड़ों वाले बगुला भगत ही आमने-सामने होते थे, लेकिन एक योगी ने बहुत कुछ बदल दिया है।
इस बदलाव का ही नतीजा है कि ‘भोगी’ उन नेताओं के लिए कहा जा रहा है जो सत्ता का सुख भोग चुके हैं और किसी भी तरह फिर से उस सुख को पाना चाहते हैं। इनके लिए किसी मठ से निकला गेरुआ वस्‍त्रधारी कोई ‘योगी’ एक आपदा की तरह है।
‘योगी’ को आपदा मानने वालों की श्रेणी में एक वर्ग ऐसा भी है जिसने खुद भले ही सत्ता का स्‍वाद कभी नहीं चखा किंतु वह चांदी की चम्‍मच मुंह में डालकर सत्ताधीशों के यहां पैदा हुआ है लिहाजा वह सोचता है कि सत्ता केवल उसकी विरासत है।
इनकी नजर में ‘योगी’ और ‘भोगी’ उसके कारिन्‍दे तो हो सकते हैं परंतु उन्‍हें सत्ता पर बैठने का कोई हक नहीं है। वो इन्‍हें आदेश देने के लिए नहीं, आदेश मानने के लिए हैं इसलिए ऐसे लोगों को कभी कुर्सी पर बैठायेंगे भी तो वही बैठायेंगे। बेशक लोकतंत्र का ढोल बजता रहे, चुनाव होते रहें लेकिन ‘गले में पट्टा’ उन्‍हीं का पड़ना चाहिए।
बहरहाल, इसी सोच से चंद वर्षों में एक तीसरा वर्ग भी उपज आया है। इस वर्ग को नाम दिया गया है ‘मनोरोगी’। ये वो वर्ग है जो सत्ता सुख छिन जाने की वजह से अपना मानसिक संतुलन खो बैठा है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि करे तो क्‍या करे। पागलों की तरह लकीर को मिटाने में लगा है लेकिन लकीर है कि लंबी होती जा रही है।
ये वर्ग दिन-रात सारी शक्‍ति लगाकर अपने सामने खींची गई इस लाइन को बिगाड़ने में लगा है। कभी-कभी उसकी पूंछ पकड़ भी लेता है और कुछ हिस्‍सा छोटा करने में कामयाब हो जाता है लेकिन अपनी कोई लाइन नहीं बना पा रहा।
जाहिर है कि इस मानसिक स्‍थिति में यह वर्ग मनोरोगी होता जा रहा है, और दुर्भाग्‍य से उसकी इस दशा और दिशा से लोग भी वाकिफ हो चुके हैं।
यही कारण है कि चुनावों से महीनों पहले पूछा जाने लगा है- यूपी में इस बार किसकी सरकार… योगी, भोगी या फिर मनोरोगी।
चूंकि सवाल जनता का है और जवाब भी जनता को ही देना है इसलिए इंतजार है 2022 का। क्‍योंकि तभी पता लगेगा कि जनता अपने लिए किसे चुनती है और सीएम की कुर्सी के पीछे एकबार फिर गेरूआ तौलिया टंगता है या भक्‍क सफेद।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

Thursday 25 March 2021

देश के हर प्रदेश में हैं परमबीर, देशमुख और वाझे जैसे लोग लेकिन जो पकड़े जाएं वो चोर… बाकी सब साहूकार


 मुकेश अंबानी के ‘एंटीलिया’ से उठे तूफान ने इस समय समूचे महाराष्‍ट्र की कानून-व्‍यवस्‍था को अपनी चपेट में ले रखा है। अंबानी हाउस के बाहर सड़क पर खड़ी की गई ‘जिलेटिन’ से भरी स्‍कॉर्पियो और उसमें अंबानी परिवार के लिए छोड़ी गई धमकी भरी चिठ्ठी का उद्देश्‍य भले ही फिलहाल सामने न आ पाया हो किंतु इतना जरूर सामने आ चुका है कि स्‍वतंत्रता के 73 सालों बाद भी देश की सरकारें न तो फिरंगियों से विरासत में मिले पुलिस बल का मूल चरित्र बदल पायी हैं और न राजनीति के निरंतर हो रहे अधोपतन को रोक पा रही हैं।

इस अधोपतन का ही परिणाम है कि पॉलिटिशियन एवं पुलिस के गठजोड़ में ‘अपराधी’ रूपी एक अन्‍य तत्‍व का समावेश पिछले ढाई दशक के अंदर बड़ी तेजी के साथ हुआ, और यही गठजोड़ आज कभी कहीं तो कभी कहीं अपनी दुर्गन्‍ध से समूची व्‍यवस्‍था पर सवालिया निशान खड़े करता रहता है।
आज स्‍थिति यह है कि राजनेता, अपराधी और पुलिस की तिकड़ी में से कौन कितना ज्‍यादा धूर्त साबित होगा, कहा नहीं जा सकता।
बेशक आज महाराष्‍ट्र की चर्चा लेकिन…
इसमें कोई दो राय नहीं कि एंटीलिया केस से उपजे हालातों के बाद जिस तरह के आरोप मुंबई के पुलिस कमिश्‍नर ने बाकायदा एक पत्र लिखकर महाराष्‍ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख पर लगाए हैं, वैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता किंतु क्‍या इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश के दूसरे राज्‍यों में हालात इससे कुछ इतर हैं?
28 राज्‍यों और 9 केन्‍द्र शासित प्रदेशों से सुसज्‍जित भारत में क्‍या अन्‍यत्र कहीं पॉलिटिशियन, पुलिस एवं अपराधियों का अनैतिक गठबंधन काम नहीं कर रहा?
बात उत्तर प्रदेश की
यहां उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो चार वर्षों के दौरान योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व वाली भाजपा सरकार ने इस अनैतिक गठजोड़ को तोड़ने के लिए निसंदेह काफी अच्‍छे प्रयास किए हैं परंतु इसका यह मतलब नहीं कि यूपी इससे मुक्‍त हो चुका है।
योगीराज में ही 02 जुलाई 2020 की रात हुआ कानपुर का बिकरू कांड हकीकत बयां करने में सक्षम है कि किस तरह विकास दुबे नाम का एक दुर्दांत अपराधी फ्रंट फुट पर खेल रहा था, और यदि उसके हाथों एकसाथ आठ पुलिसजन न मारे गए होते तो संभवत: आगे भी खेलता रहता।
हां… इतना जरूर कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती सरकारें जिस बेशर्मी के साथ ऐसे नापाक गठजोड़ का अपने-अपने तरीकों से समर्थन करती थीं, वैसा आज सुनाई या दिखाई नहीं देता।
हालांकि अब भी उत्तर प्रदेश में भ्रष्‍टाचार के पर्याय रहे अफसर अच्‍छी तैनाती पाए हुए हैं क्‍योंकि उन्‍हें किसी न किसी स्‍तर से राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त है।
पूर्व में प्रयागराज और बुलंदशहर के वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षकों पर भ्रष्‍टाचार एवं कदाचार के कारण की गई कार्यवाही से लेकर महोबा के एसपी की करतूतों तक ने पुलिस विभाग के साथ-साथ प्रदेश सरकार को भी शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, बावजूद इसके सबकुछ दुरुस्‍त नहीं हो पा रहा। तमाम दागी अधिकारी आज भी उसी प्रकार अच्‍छी पोस्‍टिंग पर बने हुए हैं जिस प्रकार पूर्ववर्ती सरकारों में थे।
हाल ही में सीएम योगी आदित्‍यनाथ द्वारा मंडल स्‍तरीय अधिकारियों को अपने सीयूजी फोन खुद रिसीव न करने पर चेतावनी सहित निर्देश देना यह साबित करता है कि नौकरशाही अब भी निरंकुश है और उसे आसानी से सुधारा भी नहीं जा सकता।
अनेक प्रयास करने पर भी आईएएस और आईपीएस अधिकारी अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्‍यौरा देने को तैयार नहीं हैं क्‍योंकि ऐसे अधिकारियों की गिनती उंगलियों पर ही की जा सकती है जिनके पास आय से अधिक संपत्ति न हो।
ऐसा नहीं है कि ये सच्‍चाई सिर्फ अधिकारियों तक सीमित हो। दूसरे-तीसरे और चौथे दर्जे तक के सरकारी कर्मचारियों का यही हाल है।
शेष भारत
उत्तर प्रदेश को भले ही एक नजीर मान लिया जाए लेकिन जम्‍मू-कश्‍मीर और लेह-लद्दाख से लेकर राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली में भी पुलिस-प्रशासन का हाल कमोबेश एक जैसा ही है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 28 राज्‍यों और 9 केन्‍द्र शासित प्रदेशों वाले इस देश में बहुत से बदलाव हुए हैं लेकिन यदि ऐसा कुछ है जो नहीं बदला तो वो है नापाक गठबंधनों का खेल।
एक ऐसा खेल जिसमें राज्‍य मायने नहीं रखते, जिसमें सीमाओं की अहमियत नहीं है, जिसमें भाषा-बोली भी आड़े नहीं आती क्‍योंकि पुलिस, पॉलिटिशियन और अपराधियों की चाल व चरित्र आश्‍चर्यजनक रूप से समान पाए जाते हैं।
माना कि परमबीर सिंह ने मुंबई के पुलिस कमिश्‍नर जैसे महत्‍वपूर्ण पद से हटाए जाने के बाद महाराष्‍ट्र के गृह मंत्री पर 100 करोड़ रुपए महीने की अवैध वसूली कराने जैसा गंभीर आरोप लगाया लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी बात कोई अहमियत नहीं रखती।
अवैध वसूली का यह खेल भी महाराष्‍ट्र की तरह दूसरे सभी राज्‍यों की पुलिस करती है, लेकिन हंगामा इसलिए बरपा है क्‍योंकि पहली बार किसी पुलिस अधिकारी ने सीधे-सीधे ‘सरकार’ को लपेटे में लेने का दुस्‍साहस किया है।
परमबीर सिंह को ये भी पता है कि नेता नगरी में उसके आरोपों को बहुत महत्‍व नहीं दिया जाएगा और किंतु-परंतु के साथ सारे आरोप हवा में उड़ाने की कोशिश होगी, संभवत: इसीलिए उन्‍होंने समय रहते सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।
अब यदि सुप्रीम कोर्ट इसे नजीर मानकर कोई बड़ा निर्णय सुनाता है तो तय मानिए कि बात बहुत दूर तक जाएगी क्‍योंकि देश की सारी समस्‍याओं की जड़ में हर जगह अनिल देशमुख, परमबीर और सचिन वाझे ही पाए जाएंगे।
वजह बड़ी साफ है, और वो ये कि समय और परिस्‍थितियों के हिसाब से इनकी सूरत बेशक बदलती रहे, लेकिन सीरत जस की तस पायी जाती है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

Saturday 20 March 2021

इस दौर में पत्रकार, मतलब कमजोर की ‘जोरू’

कभी पत्रकार भी होते होंगे बाहुबली, लेकिन इस दौर में पत्रकार होना…मतलब कमजोर की ‘जोरू’।

बीती 11 तारीख को लाल टोपी वाले नेता ने अपने गुर्गों से मुरादाबाद के एक होटल में पत्रकारों का जमकर ‘सार्वजनिक अभिनंदन’ करा दिया। लाल टोपी वाले नेता जी पत्रकारों द्वारा कुछ ऐसे सवाल करने पर अचानक हत्‍थे से उखड़ गए जो उन्‍हें सख्‍त नापसंद थे।
हालांकि पत्रकारों ने नेताजी और उनके ‘दो दहाई’ गुर्गों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी लेकिन नेताजी के गुर्गों ने भी न केवल क्रॉस रिपोर्ट दर्ज कराई बल्‍कि खुद नेताजी ने अपने खिलाफ हुई एफआईआर की कॉपी टि्वटर पर शेयर करके लिखा कि योगी जी चाहें… तो मैं इस एफआईआर को लखनऊ में हॉर्डिंग्‍स पर लगवा दूं।
इस खुली चुनौती के बावजूद कल को लाल टोपी वालों के खिलाफ दर्ज एफआईआर एक्‍सपंज कर दी जाए और पत्रकारों को घर से घसीट-घसीट कर गिरफ्तार किया जाने लगे तो कोई आश्‍चर्य नहीं क्‍योंकि पत्रकारों की नेताओं के सामने औकात ही क्‍या है। चूंकि पुलिस भी पत्रकारों के किसी तरह ‘फंसने’ की ताक में रहती है इसलिए मौका मिला नहीं कि कार्यवाही शुरू। फिर करते रहो लानत-मलामत, कोई पूछता है क्‍या।
बहुत दिन नहीं बीते जब एक राष्‍ट्रीय चैनल के अंतर्राष्‍ट्रीय संपादक और मालिक को मुंबई पुलिस उसके घर से डंडा-डोली करके ले गई थी। वहां भी मामला कुछ ऐसा ही था कि ये संपादक अपने चैनल पर चीख-चीख के सत्ताधारी दल के नेताओं की बखिया उधेड़ा करता था। मिट्टी के ‘शेर’ वाली पार्टी के मुखिया ने इस दहाड़ने वाले संपादक को फिलहाल तो मिमयाने लायक भी नहीं छोड़ा है, आगे की राम जानें।
इसी प्रकार कुछ वर्षों पहले सबसे तेज समाचार चैनल के रिपोर्टर को यूपी की एक क्षेत्रीय पार्टी के संस्‍थापक ने प्रश्‍न पूछने से नाराज होकर सरेआम इतना तेज ‘लपड़िया’ दिया था कि उनके तवे से काले गाल पर भी थप्‍पड़ की सुर्खी साफ-साफ दिखाई दे रही थी।
ये बात दीगर है कि आज वह रिपोर्टर, राजनीतिक व‍िश्लेषक के तौर पर विभिन्‍न टीवी चैनल्‍स की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं और एंकर द्वारा गुजरे जमाने के पत्रकार के रूप में परिचय दिए जाने पर चश्‍मे के अंदर से एंकर को कुछ इस तरह घूर कर ताड़ते हैं जैसे उसने अतीत का खाका खींचकर बड़ा वाला गुनाह कर दिया हो।
मफलरधारी मुखिया की पार्टी में सेवारत रहे इस कनवर्टेड राजनीतिक व‍िश्लेषक का तार्रुफ़ यदि एक्‍स नेता बतौर कराया जाए तो इसे गुरेज नहीं होता किंतु पूर्व पत्रकार बताए जाने पर पपीता सा मुंह निकल आता है।
ऐसा शायद इसलिए कि तमाम उम्र पत्रकारिता में बिताने के बाद भी आखिर में उसे नवाजा गया तो थप्‍पड़ से, लेकिन चंद रोज नेतागीरी को देते ही राजनीतिक व‍िश्लेषक का तमगा हासिल करते देर नहीं लगी।
कभी एक नेता के हाथों झन्‍नाटेदार चांटा खाने के बाद चश्‍मा उतारकर गाल को सहलाते हुए निकलने वाला यह टीवी पत्रकार आज टीवी पत्रकारों पर ‘गोदी’ मीडिया का ठप्‍पा लगाने से परहेज नहीं करता क्‍योंकि वह जान व समझ चुका है कि पत्रकार होने का मतलब ही ऐसे कमजोर की जोरू है जिसे राह चलता भी ‘भाभी’ बोलने का अधिकार रखता हो।
यदि ऐसा न होता तो न्‍यूज़ चैनल्‍स की डिबेट में हर ऐरा-गैरा, नत्‍थू-खैरा नेता बड़े से बड़े और नामचीन एंकर पर मनमर्जी तोहमत लगाकर चलता नहीं बनता, वो भी तब जबकि सवाल पूछना पत्रकार का पेशेगत धर्म व कर्म है।
माना कि ऊँच-नीच पत्रकारों से भी होती है… तो क्‍या नेता दूध के धुले हैं। टोपी लाल हो या सफेद अथवा हरी या नीली-पीली, बेदाग तो कोई नहीं… किंतु पत्रकारों पर जोर सबका चलता है।
पहले सिर्फ मुंह से बोलकर जोर चला लेते थे, अब हाथ-पैर भी चलाने लगे हैं क्‍योंकि जानते हैं कि पत्रकारों के भी ‘नेता’ होते हैं और ये नेता राजनीतिक दलों के नेताओं से कतई भिन्‍न नहीं होते।
इनके सिर पर किसी खास कलर की टोपी न हुई तो क्‍या, एक अदृश्‍य ‘कलंगी’ जरूर होती है। ये कलंगी जिस पत्रकार के सिर सज गई, समझो उसे सबको टोपी पहनाने का लाइसेंस मिल गया।
लाल टोपी वालों के मामले में भी देर-सवेर यही होने वाला है। किसी कलंगीधारी पत्रकार की कृपा से पिटने वाले पीटने वालों के सामने हाथ बांधे खड़े होंगे और पीटने वाले कल पूछे गए इस सवाल कि कितने में बिके हो, को इस बार घुमाकर पूछेंगे कि कितने में बिकोगे?
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

Sunday 14 February 2021

अपने प्रिय मित्र कांग्रेस उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी के नाम एक खुला खत


 कांग्रेस के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी और मेरा रिश्‍ता यूं तो ठीक वैसा ही है जैसा मेरा देश के दूसरे नेताओं से है किंतु एक मामले में वो मेरे लिए अन्‍य नेताओं से अलग हैं।

दरअसल, मैं उन्‍हें अपना मित्र मानता हूं और ये मित्रता पूरी तरह एकतरफा है। अब है तो है। इसमें कोई कर भी क्‍या सकता है। दिल के सौदे कुछ ऐसे ही हुआ करते हैं।
इसी ‘दिल-लगी’ के चलते मैं आज उन्‍हें एक खुला खत लिखने का दुस्‍साहस कर पा रहा हूं। बिना ये सोचे-समझे कि इसका अंजाम क्‍या होगा।
प्रिय मित्र राहुल जी, जैसा कि आप जानते और समझते ही होंगे कि हमारे देश में बिन मांगे सलाह देने की परंपरा बहुत पुरानी है इसलिए आज मैं भी आपको एक सलाह दे रहा हूं। ज़ाहिर है कि इसे मानना या न मानना आपके अपने बुद्धि-विवेक पर निर्भर करता है। मतलब आपको जो उचित लगे, वही ‘हश्र’ आप मेरी सलाह का कर सकते हैं।
सलाह ये है कि लिखा-पढ़ी में कांग्रेस के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष का पदभार पुन: आपके कंधों पर डाल दिया जाए, उससे पहले आप एक ‘डीम्‍ड यूनिवर्सिटी’ स्‍थापित कर खुद को उसका कुलाधिपति घोषित कर दें। आप चाहें तो रणदीप सुरजेवाला को उसका कुलपति नियुक्‍त कर सकते हैं।
फैकल्‍टी के रूप में आपके पास पार्टी प्रवक्‍ताओं की ऐसी फौज पहले से मौजूद है जो आपके श्रीमुख से निकलने वाले प्रत्‍येक शब्‍द को तत्‍काल लपक कर न सिर्फ उसका विच्‍छेदन आपकी इच्‍छानुसार करने की योग्‍यता रखती है बल्‍कि कई बार उससे भी परे जाकर यह साबित करती है कि वो आपको, आपसे भी अधिक अच्‍छी तरह समझ रही है। इतना अच्‍छी तरह, जितना कि आपकी मॉम या बहिन भी नहीं समझ पातीं।
मेरी आपसे गुज़ारिश है कि इस यूनिवर्सिटी में सिर्फ और सिर्फ आपके अपने द्वारा गढ़ी गई राजनीति के गुर सिखाए जाएं, कोई दूसरा विषय न हो।
मसलन मामला कोई भी हो, उसे किसी भी तरह एक ही व्‍यक्‍ति या एक ही समूह पर कैसे केन्‍द्रित किया जा सकता है। खेत की बात को खलिहान की ओर, और खलिहान की बात को चीन तथा पाकिस्‍तान की ओर कैसे मोड़ा जा सकता है।
चूंकि आपके पास गुजरात के मुख्‍यमंत्री तथा देश के प्रधानमंत्री को किस्‍म-किस्‍म के अपशब्‍द कहने का एक लंबा अनुभव है इसलिए उस यूनिवर्सिटी में आपके द्वारा ईज़ाद किए गए ‘अपशब्‍दों’ का इस्‍तेमाल करने की विशेष ट्रेनिंग का इंतजाम किया जाए ताकि कांग्रेस सहित बाकी दूसरी पार्टियों के भावी नेताओं को राजनीति में ओछे हथकंडे अपनाने के तौर-तरीके सीखने अन्‍यत्र न जाना पड़े। आप चाहें तो उसकी फीस अतिरिक्‍त रख सकते हैं।
‘नेहरू-गांधी परिवार’ की राजनीतिक विरासत संभालने को आपके बाद वाली पीढ़ी में फिलहाल आपकी बहिन प्रियंका के ही बच्‍चे दिखाई देते हैं इसलिए भी जरूरी है कि वो आपके कटु लहजे को सहेजकर रख सकें और आगे चलकर यह लहज़ा उनके काम आ सके।
कांग्रेस को एकमात्र नेहरू-गांधी परिवार की ‘थाती’ मानने के कारण कोई अन्‍य कांग्रेसी इस गुरुत्तर भार को उठाने की योग्‍यता शायद ही हासिल कर सके इसलिए अति आवश्‍यक है कि समय रहते आपकी विधा को आपके भांजे-भांजी बखूबी प्राप्‍त कर सकें। कांग्रेस को कागजों में लपेटकर उसे अतीत बना देने के लिए ये ट्रांसफॉरमेशन अत्‍यंत जरूरी है, अन्‍यथा आपके ‘अपशब्‍द’ अनुपयोगी रह जाएंगे।
राहुल जी…! जिस प्रकार आपने संसद के अंदर कभी ‘आई व‍िंंकिंग’ करके तो संसद के बाहर अध्‍यादेश फाड़कर कीर्तिमान स्‍थापित किए हैं, उनका भी कोई सानी नहीं लिहाज़ा नेताओं की आने वाली खेप को इस कला में दक्ष करने का भी मुकम्‍मल बंदोबस्‍त आप अपनी यूनिवर्सिर्टी में कर दें तो देश पर आपकी महती कृपा होगी तथा आने वाली नस्‍लें हमेशा आपके प्रति इस कार्य के लिए कृतज्ञ रहेंगी।
यकीन मानिए कि आपके पूज्‍य पूर्वजों स्‍व. जवाहर लाल नेहरू, स्‍व. श्रीमती इंदिरा गांधी एवं स्‍व. श्री राजीव गांधी को ‘भारत रत्‍न’ चाहे जिन कारणों से मिला हो किंतु आपके लिए देश के इस सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान की व्‍यवस्‍था आपके इन्‍हीं कारनामों के कारण की जाएगी क्‍योंकि कभी प्रधानमंत्री न बनने का इंतजाम आप खुद अपने लिए लगातार कर ही रहे हैं।
और अंत में केवल यही कहूंगा कि ‘मोदी है तो मुमकिन’ है के नारे को जितना सार्थक आपने किया है, उतना शायद ही कोई दूसरा कर सके।
बस मुझे चिंता है तो इस बात की कि मोदी और भाजपा को अगले कई दशकों तक सत्ता सौंपे रहने की इस अपनी व्‍यवस्‍था में आप पता नहीं स्‍वाभाविक नींद की अवस्‍था तक पहुंच पाते होंगे या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको उसके लिए भी कोई अन्‍य ‘कारस्‍तानी’ करनी पड़ रही हो।
यदि ऐसा है तो आप बाकायदा एक माला लेकर अपनी चारपाई के पाये से बांध लें और नींद न आने की स्‍थिति में उस माला पर ‘मोदी नाम केवलम्’ का जाप यथोचित अपशब्‍दों के साथ करें। उस समय आप वो अपशब्‍द भी इस्‍तेमाल कर सकते हैं जिन्‍हें हम जैसे मामूली लोग अपनी भाषा में ‘गालियां’ कहते हैं। यकीन मानिए, आपको बहुत राहत मिलेगी और आप चैन की नींद सो सकेंगे।
हो सकता है कि इस आखिरी सलाह को मान लेने पर आपको सर्वाजनिक रूप से मोदी के सम्‍मान में उन शब्‍दों का प्रयोग न करना पड़े जिनके लिए आप कुख्‍यात हो चुके हैं और जो न सिर्फ आपके करियर बल्‍कि कांग्रेस के लिए भी कब्र खोदने का काम कर रहे हैं।
और हां, आप मेरी ये सलाह मान लेने के बावजूद आई व‍िंंकिंग सहित उन सभी इशारों का उपयोग करने को स्‍वतंत्र हैं जिन्‍हें ‘मैंगो पीपल’ छिछोरों के लिए आरक्षित मान बैठा है। आमीन!
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

Sunday 7 February 2021

70 साल में पहली बार क‍िसानों का भोलापन… “सबसे भले वे मूढ़, जिन्हें न व्यापे जगत गति”


 

नए कृषि कानूनों को लेकर राष्‍ट्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर आंदोलनरत किसानों की ‘ये वैरायटी’ कितनी भोली है या कितनी चालाक, इसका इल्‍म तो फिलहाल नहीं हो पाया है… अलबत्ता इतना जरूर पता लग चुका है कि ‘उद्भट विद्वानों’ से भरे विपक्ष में कई नेता इतने ‘भोले’ हैं कि उन्‍हें ‘जगत गति’ व्‍याप ही नहीं रही।

इन नेताओं के भोलेपन का अंदाज आप इस बात से लगा सकते हैं कि मोदी सरकार नए कानूनों को खारिज़ न करके खुद अपनी रुख़सती का मुकम्‍मल इंतजाम कर रही है और विपक्ष इस बात पर आमादा है कि सरकार अपनी गलती दुरुस्‍त करके 2024 में भी जीतने की पक्‍की व्‍यवस्‍था कर ले।
‘पप्‍पू’ का पर्यायवाची शब्‍द हालांकि किसी शब्‍दकोश में ढूंढ़े नहीं मिला लेकिन ऐसा विश्‍वास है कि यदि इसका कोई पर्यायवाची होता तो निश्‍चित ही ऐसे ही ‘भोलेपन’ को सार्थक करता हुआ होता जैसे भोलेपन का मुजाहिरा विपक्षी नेता कर रहे हैं।
‘पप्‍पू’ ही क्‍यों, ‘टीपू’ और ‘जीतू’ से लेकर ‘पप्‍पी’ व ‘मीतू’ तक का पर्यायवाची यही होता क्‍योंकि सबकी क्रिया एक जैसी है। वैसे तमाम विपक्षी नेताओं के भोलेपन ने यह भी साबित कर दिया है कि ‘भोलेपन’ का पेटेंट किसी एक पार्टी अथवा किसी एक नेता के पास नहीं है बल्‍कि देश भरा पड़ा है ऐसे ‘भोले-भाले’ नेताओं तथा उनके अनुकरणीय नुमाइंदों से।
जरा विचार कीजिए कि यदि ये नहीं होता तो मोदी सरकार के लिए ‘आत्‍मघाती’ साबित होने जा रहे नए कृषि कानूनों से पीछे हटने की सलाह विपक्ष क्‍यों देता।
उसे तो खुश होना चाहिए था कि अब 2024 में उसे सत्ता सौंपने की व्‍यवस्‍था भाजपा के नेतृत्‍व वाली सरकार ने खुद-ब-खुद कर दी।
सच पूछो तो दुख होता है विपक्षी नेताओं के ऐसे भोलेपन पर, दया आती है उनकी इतनी सिधाई पर कि जिस भाजपा ने 2014 से उसे कहीं का नहीं छोड़ा, उसी के हित में डंडा-झंडा लेकर खड़े हो गए हैं।
बल, बुद्धि, विद्या सब जाया कर रहे हैं कि मोदी सरकार किसी तरह कृषि कानून वापस ले ले।
इन मासूम नेताओं को कोई यह समझाने वाला भी नहीं कि भाई… एकबार को मान लो कि यदि मोदी सरकार ने उनकी कही कर दी और अपने कदम खींच लिए तो सरकार से किसानों का बैर खत्‍म समझो, और बैर खत्‍म हुआ नहीं कि ‘एकबार फिर मोदी सरकार’ के नारे फिजा में तैरने लगेंगे। तब ये बेचारे भोले विपक्षी नेता क्‍या करेंगे।
हो सकता है कि किसी अक्‍ल के अंधे ने इनके कान में ये बात फूंक दी हो कि ऐसा हो गया तो उसका श्रेय आपको मिल जाएगा और चुनावों में इसका सीधा लाभ तुम्‍हें ही मिलेगा, तो जान लो कि ऐसा नहीं होने का।
वो इसलिए कि काजू-बादाम और किशमिश खाकर आंदोलन करने वाले ये वैरायटी किसान उनके जितने भोले नहीं हैं। वो जानते हैं कि कब नेताओं को अपने घड़ियाली आंसुओं में बहा ले जाना है और कब विज्ञान भवन में सरकार के साथ सौदेबाजी के लिए जाना है।
वैरायटी खेती की हो या किसान की, होती बड़े काम की चीज है अन्‍यथा ‘एक ही टोपी’ समूचे विपक्ष को पहनाने की कला हर किसी को नहीं आती।
वैसे राज्‍यों के चुनाव तो 2021 में भी होने हैं और 2022 में भी, ऐसे में तो विपक्ष को वो प्रयास करने चाहिए कि सत्ता पक्ष इसी तरह अपनी जिद पर अड़ा रहे। किसी तरह किसानों की कोई बात मानने को तैयार न हो ताकि पहले तो इन चुनावों में भाजपा को झटके दर झटके दिए जा सकें और फिर 2024 में ऐसा किल्‍ला गाड़ा जा सके कि अगले 70 वर्षों तक भाजपा फिर कुर्सी को तरस जाए।

लेकिन करें तो क्‍या करें विपक्ष के इस भोलेपन का। इस पर हंसे या रोएं, समझ में नहीं आ रहा। समझ में आ रहा है तो सिर्फ इतना कि कैसे मोदी सरकार विपक्ष के भोलेपन का नाजायज़ लाभ अर्जित करती चली आ रही है और कैसे वैरायटी किसानों की ज़ि‍द को भी निजी हित में मोड़ रही है।
अंत में यही समझकर लिखने का अंत करने को मन कर रहा है कि “सबसे भले वे मूढ़, जिन्हें न व्यापे जगत गति”। क्‍योंकि किसी के मुंह से सुना है- अत्‍यधिक भोलापन और मूढ़ता में बहुत अधिक फर्क नहीं है।

-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी