कभी पत्रकार भी होते होंगे बाहुबली, लेकिन इस दौर में पत्रकार होना…मतलब कमजोर की ‘जोरू’।बीती 11 तारीख को लाल टोपी वाले नेता ने अपने गुर्गों से मुरादाबाद के एक होटल में पत्रकारों का जमकर ‘सार्वजनिक अभिनंदन’ करा दिया। लाल टोपी वाले नेता जी पत्रकारों द्वारा कुछ ऐसे सवाल करने पर अचानक हत्थे से उखड़ गए जो उन्हें सख्त नापसंद थे।
हालांकि पत्रकारों ने नेताजी और उनके ‘दो दहाई’ गुर्गों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी लेकिन नेताजी के गुर्गों ने भी न केवल क्रॉस रिपोर्ट दर्ज कराई बल्कि खुद नेताजी ने अपने खिलाफ हुई एफआईआर की कॉपी टि्वटर पर शेयर करके लिखा कि योगी जी चाहें… तो मैं इस एफआईआर को लखनऊ में हॉर्डिंग्स पर लगवा दूं।
इस खुली चुनौती के बावजूद कल को लाल टोपी वालों के खिलाफ दर्ज एफआईआर एक्सपंज कर दी जाए और पत्रकारों को घर से घसीट-घसीट कर गिरफ्तार किया जाने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि पत्रकारों की नेताओं के सामने औकात ही क्या है। चूंकि पुलिस भी पत्रकारों के किसी तरह ‘फंसने’ की ताक में रहती है इसलिए मौका मिला नहीं कि कार्यवाही शुरू। फिर करते रहो लानत-मलामत, कोई पूछता है क्या।
बहुत दिन नहीं बीते जब एक राष्ट्रीय चैनल के अंतर्राष्ट्रीय संपादक और मालिक को मुंबई पुलिस उसके घर से डंडा-डोली करके ले गई थी। वहां भी मामला कुछ ऐसा ही था कि ये संपादक अपने चैनल पर चीख-चीख के सत्ताधारी दल के नेताओं की बखिया उधेड़ा करता था। मिट्टी के ‘शेर’ वाली पार्टी के मुखिया ने इस दहाड़ने वाले संपादक को फिलहाल तो मिमयाने लायक भी नहीं छोड़ा है, आगे की राम जानें।
इसी प्रकार कुछ वर्षों पहले सबसे तेज समाचार चैनल के रिपोर्टर को यूपी की एक क्षेत्रीय पार्टी के संस्थापक ने प्रश्न पूछने से नाराज होकर सरेआम इतना तेज ‘लपड़िया’ दिया था कि उनके तवे से काले गाल पर भी थप्पड़ की सुर्खी साफ-साफ दिखाई दे रही थी।
ये बात दीगर है कि आज वह रिपोर्टर, राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर विभिन्न टीवी चैनल्स की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं और एंकर द्वारा गुजरे जमाने के पत्रकार के रूप में परिचय दिए जाने पर चश्मे के अंदर से एंकर को कुछ इस तरह घूर कर ताड़ते हैं जैसे उसने अतीत का खाका खींचकर बड़ा वाला गुनाह कर दिया हो।
मफलरधारी मुखिया की पार्टी में सेवारत रहे इस कनवर्टेड राजनीतिक विश्लेषक का तार्रुफ़ यदि एक्स नेता बतौर कराया जाए तो इसे गुरेज नहीं होता किंतु पूर्व पत्रकार बताए जाने पर पपीता सा मुंह निकल आता है।
ऐसा शायद इसलिए कि तमाम उम्र पत्रकारिता में बिताने के बाद भी आखिर में उसे नवाजा गया तो थप्पड़ से, लेकिन चंद रोज नेतागीरी को देते ही राजनीतिक विश्लेषक का तमगा हासिल करते देर नहीं लगी।
कभी एक नेता के हाथों झन्नाटेदार चांटा खाने के बाद चश्मा उतारकर गाल को सहलाते हुए निकलने वाला यह टीवी पत्रकार आज टीवी पत्रकारों पर ‘गोदी’ मीडिया का ठप्पा लगाने से परहेज नहीं करता क्योंकि वह जान व समझ चुका है कि पत्रकार होने का मतलब ही ऐसे कमजोर की जोरू है जिसे राह चलता भी ‘भाभी’ बोलने का अधिकार रखता हो।
यदि ऐसा न होता तो न्यूज़ चैनल्स की डिबेट में हर ऐरा-गैरा, नत्थू-खैरा नेता बड़े से बड़े और नामचीन एंकर पर मनमर्जी तोहमत लगाकर चलता नहीं बनता, वो भी तब जबकि सवाल पूछना पत्रकार का पेशेगत धर्म व कर्म है।
माना कि ऊँच-नीच पत्रकारों से भी होती है… तो क्या नेता दूध के धुले हैं। टोपी लाल हो या सफेद अथवा हरी या नीली-पीली, बेदाग तो कोई नहीं… किंतु पत्रकारों पर जोर सबका चलता है।
पहले सिर्फ मुंह से बोलकर जोर चला लेते थे, अब हाथ-पैर भी चलाने लगे हैं क्योंकि जानते हैं कि पत्रकारों के भी ‘नेता’ होते हैं और ये नेता राजनीतिक दलों के नेताओं से कतई भिन्न नहीं होते।
इनके सिर पर किसी खास कलर की टोपी न हुई तो क्या, एक अदृश्य ‘कलंगी’ जरूर होती है। ये कलंगी जिस पत्रकार के सिर सज गई, समझो उसे सबको टोपी पहनाने का लाइसेंस मिल गया।
लाल टोपी वालों के मामले में भी देर-सवेर यही होने वाला है। किसी कलंगीधारी पत्रकार की कृपा से पिटने वाले पीटने वालों के सामने हाथ बांधे खड़े होंगे और पीटने वाले कल पूछे गए इस सवाल कि कितने में बिके हो, को इस बार घुमाकर पूछेंगे कि कितने में बिकोगे?
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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