Thursday 25 March 2021

देश के हर प्रदेश में हैं परमबीर, देशमुख और वाझे जैसे लोग लेकिन जो पकड़े जाएं वो चोर… बाकी सब साहूकार


 मुकेश अंबानी के ‘एंटीलिया’ से उठे तूफान ने इस समय समूचे महाराष्‍ट्र की कानून-व्‍यवस्‍था को अपनी चपेट में ले रखा है। अंबानी हाउस के बाहर सड़क पर खड़ी की गई ‘जिलेटिन’ से भरी स्‍कॉर्पियो और उसमें अंबानी परिवार के लिए छोड़ी गई धमकी भरी चिठ्ठी का उद्देश्‍य भले ही फिलहाल सामने न आ पाया हो किंतु इतना जरूर सामने आ चुका है कि स्‍वतंत्रता के 73 सालों बाद भी देश की सरकारें न तो फिरंगियों से विरासत में मिले पुलिस बल का मूल चरित्र बदल पायी हैं और न राजनीति के निरंतर हो रहे अधोपतन को रोक पा रही हैं।

इस अधोपतन का ही परिणाम है कि पॉलिटिशियन एवं पुलिस के गठजोड़ में ‘अपराधी’ रूपी एक अन्‍य तत्‍व का समावेश पिछले ढाई दशक के अंदर बड़ी तेजी के साथ हुआ, और यही गठजोड़ आज कभी कहीं तो कभी कहीं अपनी दुर्गन्‍ध से समूची व्‍यवस्‍था पर सवालिया निशान खड़े करता रहता है।
आज स्‍थिति यह है कि राजनेता, अपराधी और पुलिस की तिकड़ी में से कौन कितना ज्‍यादा धूर्त साबित होगा, कहा नहीं जा सकता।
बेशक आज महाराष्‍ट्र की चर्चा लेकिन…
इसमें कोई दो राय नहीं कि एंटीलिया केस से उपजे हालातों के बाद जिस तरह के आरोप मुंबई के पुलिस कमिश्‍नर ने बाकायदा एक पत्र लिखकर महाराष्‍ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख पर लगाए हैं, वैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता किंतु क्‍या इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश के दूसरे राज्‍यों में हालात इससे कुछ इतर हैं?
28 राज्‍यों और 9 केन्‍द्र शासित प्रदेशों से सुसज्‍जित भारत में क्‍या अन्‍यत्र कहीं पॉलिटिशियन, पुलिस एवं अपराधियों का अनैतिक गठबंधन काम नहीं कर रहा?
बात उत्तर प्रदेश की
यहां उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो चार वर्षों के दौरान योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व वाली भाजपा सरकार ने इस अनैतिक गठजोड़ को तोड़ने के लिए निसंदेह काफी अच्‍छे प्रयास किए हैं परंतु इसका यह मतलब नहीं कि यूपी इससे मुक्‍त हो चुका है।
योगीराज में ही 02 जुलाई 2020 की रात हुआ कानपुर का बिकरू कांड हकीकत बयां करने में सक्षम है कि किस तरह विकास दुबे नाम का एक दुर्दांत अपराधी फ्रंट फुट पर खेल रहा था, और यदि उसके हाथों एकसाथ आठ पुलिसजन न मारे गए होते तो संभवत: आगे भी खेलता रहता।
हां… इतना जरूर कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती सरकारें जिस बेशर्मी के साथ ऐसे नापाक गठजोड़ का अपने-अपने तरीकों से समर्थन करती थीं, वैसा आज सुनाई या दिखाई नहीं देता।
हालांकि अब भी उत्तर प्रदेश में भ्रष्‍टाचार के पर्याय रहे अफसर अच्‍छी तैनाती पाए हुए हैं क्‍योंकि उन्‍हें किसी न किसी स्‍तर से राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त है।
पूर्व में प्रयागराज और बुलंदशहर के वरिष्‍ठ पुलिस अधीक्षकों पर भ्रष्‍टाचार एवं कदाचार के कारण की गई कार्यवाही से लेकर महोबा के एसपी की करतूतों तक ने पुलिस विभाग के साथ-साथ प्रदेश सरकार को भी शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, बावजूद इसके सबकुछ दुरुस्‍त नहीं हो पा रहा। तमाम दागी अधिकारी आज भी उसी प्रकार अच्‍छी पोस्‍टिंग पर बने हुए हैं जिस प्रकार पूर्ववर्ती सरकारों में थे।
हाल ही में सीएम योगी आदित्‍यनाथ द्वारा मंडल स्‍तरीय अधिकारियों को अपने सीयूजी फोन खुद रिसीव न करने पर चेतावनी सहित निर्देश देना यह साबित करता है कि नौकरशाही अब भी निरंकुश है और उसे आसानी से सुधारा भी नहीं जा सकता।
अनेक प्रयास करने पर भी आईएएस और आईपीएस अधिकारी अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्‍यौरा देने को तैयार नहीं हैं क्‍योंकि ऐसे अधिकारियों की गिनती उंगलियों पर ही की जा सकती है जिनके पास आय से अधिक संपत्ति न हो।
ऐसा नहीं है कि ये सच्‍चाई सिर्फ अधिकारियों तक सीमित हो। दूसरे-तीसरे और चौथे दर्जे तक के सरकारी कर्मचारियों का यही हाल है।
शेष भारत
उत्तर प्रदेश को भले ही एक नजीर मान लिया जाए लेकिन जम्‍मू-कश्‍मीर और लेह-लद्दाख से लेकर राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली में भी पुलिस-प्रशासन का हाल कमोबेश एक जैसा ही है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 28 राज्‍यों और 9 केन्‍द्र शासित प्रदेशों वाले इस देश में बहुत से बदलाव हुए हैं लेकिन यदि ऐसा कुछ है जो नहीं बदला तो वो है नापाक गठबंधनों का खेल।
एक ऐसा खेल जिसमें राज्‍य मायने नहीं रखते, जिसमें सीमाओं की अहमियत नहीं है, जिसमें भाषा-बोली भी आड़े नहीं आती क्‍योंकि पुलिस, पॉलिटिशियन और अपराधियों की चाल व चरित्र आश्‍चर्यजनक रूप से समान पाए जाते हैं।
माना कि परमबीर सिंह ने मुंबई के पुलिस कमिश्‍नर जैसे महत्‍वपूर्ण पद से हटाए जाने के बाद महाराष्‍ट्र के गृह मंत्री पर 100 करोड़ रुपए महीने की अवैध वसूली कराने जैसा गंभीर आरोप लगाया लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी बात कोई अहमियत नहीं रखती।
अवैध वसूली का यह खेल भी महाराष्‍ट्र की तरह दूसरे सभी राज्‍यों की पुलिस करती है, लेकिन हंगामा इसलिए बरपा है क्‍योंकि पहली बार किसी पुलिस अधिकारी ने सीधे-सीधे ‘सरकार’ को लपेटे में लेने का दुस्‍साहस किया है।
परमबीर सिंह को ये भी पता है कि नेता नगरी में उसके आरोपों को बहुत महत्‍व नहीं दिया जाएगा और किंतु-परंतु के साथ सारे आरोप हवा में उड़ाने की कोशिश होगी, संभवत: इसीलिए उन्‍होंने समय रहते सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।
अब यदि सुप्रीम कोर्ट इसे नजीर मानकर कोई बड़ा निर्णय सुनाता है तो तय मानिए कि बात बहुत दूर तक जाएगी क्‍योंकि देश की सारी समस्‍याओं की जड़ में हर जगह अनिल देशमुख, परमबीर और सचिन वाझे ही पाए जाएंगे।
वजह बड़ी साफ है, और वो ये कि समय और परिस्‍थितियों के हिसाब से इनकी सूरत बेशक बदलती रहे, लेकिन सीरत जस की तस पायी जाती है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

Saturday 20 March 2021

इस दौर में पत्रकार, मतलब कमजोर की ‘जोरू’

कभी पत्रकार भी होते होंगे बाहुबली, लेकिन इस दौर में पत्रकार होना…मतलब कमजोर की ‘जोरू’।

बीती 11 तारीख को लाल टोपी वाले नेता ने अपने गुर्गों से मुरादाबाद के एक होटल में पत्रकारों का जमकर ‘सार्वजनिक अभिनंदन’ करा दिया। लाल टोपी वाले नेता जी पत्रकारों द्वारा कुछ ऐसे सवाल करने पर अचानक हत्‍थे से उखड़ गए जो उन्‍हें सख्‍त नापसंद थे।
हालांकि पत्रकारों ने नेताजी और उनके ‘दो दहाई’ गुर्गों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी लेकिन नेताजी के गुर्गों ने भी न केवल क्रॉस रिपोर्ट दर्ज कराई बल्‍कि खुद नेताजी ने अपने खिलाफ हुई एफआईआर की कॉपी टि्वटर पर शेयर करके लिखा कि योगी जी चाहें… तो मैं इस एफआईआर को लखनऊ में हॉर्डिंग्‍स पर लगवा दूं।
इस खुली चुनौती के बावजूद कल को लाल टोपी वालों के खिलाफ दर्ज एफआईआर एक्‍सपंज कर दी जाए और पत्रकारों को घर से घसीट-घसीट कर गिरफ्तार किया जाने लगे तो कोई आश्‍चर्य नहीं क्‍योंकि पत्रकारों की नेताओं के सामने औकात ही क्‍या है। चूंकि पुलिस भी पत्रकारों के किसी तरह ‘फंसने’ की ताक में रहती है इसलिए मौका मिला नहीं कि कार्यवाही शुरू। फिर करते रहो लानत-मलामत, कोई पूछता है क्‍या।
बहुत दिन नहीं बीते जब एक राष्‍ट्रीय चैनल के अंतर्राष्‍ट्रीय संपादक और मालिक को मुंबई पुलिस उसके घर से डंडा-डोली करके ले गई थी। वहां भी मामला कुछ ऐसा ही था कि ये संपादक अपने चैनल पर चीख-चीख के सत्ताधारी दल के नेताओं की बखिया उधेड़ा करता था। मिट्टी के ‘शेर’ वाली पार्टी के मुखिया ने इस दहाड़ने वाले संपादक को फिलहाल तो मिमयाने लायक भी नहीं छोड़ा है, आगे की राम जानें।
इसी प्रकार कुछ वर्षों पहले सबसे तेज समाचार चैनल के रिपोर्टर को यूपी की एक क्षेत्रीय पार्टी के संस्‍थापक ने प्रश्‍न पूछने से नाराज होकर सरेआम इतना तेज ‘लपड़िया’ दिया था कि उनके तवे से काले गाल पर भी थप्‍पड़ की सुर्खी साफ-साफ दिखाई दे रही थी।
ये बात दीगर है कि आज वह रिपोर्टर, राजनीतिक व‍िश्लेषक के तौर पर विभिन्‍न टीवी चैनल्‍स की शोभा बढ़ाते देखे जा सकते हैं और एंकर द्वारा गुजरे जमाने के पत्रकार के रूप में परिचय दिए जाने पर चश्‍मे के अंदर से एंकर को कुछ इस तरह घूर कर ताड़ते हैं जैसे उसने अतीत का खाका खींचकर बड़ा वाला गुनाह कर दिया हो।
मफलरधारी मुखिया की पार्टी में सेवारत रहे इस कनवर्टेड राजनीतिक व‍िश्लेषक का तार्रुफ़ यदि एक्‍स नेता बतौर कराया जाए तो इसे गुरेज नहीं होता किंतु पूर्व पत्रकार बताए जाने पर पपीता सा मुंह निकल आता है।
ऐसा शायद इसलिए कि तमाम उम्र पत्रकारिता में बिताने के बाद भी आखिर में उसे नवाजा गया तो थप्‍पड़ से, लेकिन चंद रोज नेतागीरी को देते ही राजनीतिक व‍िश्लेषक का तमगा हासिल करते देर नहीं लगी।
कभी एक नेता के हाथों झन्‍नाटेदार चांटा खाने के बाद चश्‍मा उतारकर गाल को सहलाते हुए निकलने वाला यह टीवी पत्रकार आज टीवी पत्रकारों पर ‘गोदी’ मीडिया का ठप्‍पा लगाने से परहेज नहीं करता क्‍योंकि वह जान व समझ चुका है कि पत्रकार होने का मतलब ही ऐसे कमजोर की जोरू है जिसे राह चलता भी ‘भाभी’ बोलने का अधिकार रखता हो।
यदि ऐसा न होता तो न्‍यूज़ चैनल्‍स की डिबेट में हर ऐरा-गैरा, नत्‍थू-खैरा नेता बड़े से बड़े और नामचीन एंकर पर मनमर्जी तोहमत लगाकर चलता नहीं बनता, वो भी तब जबकि सवाल पूछना पत्रकार का पेशेगत धर्म व कर्म है।
माना कि ऊँच-नीच पत्रकारों से भी होती है… तो क्‍या नेता दूध के धुले हैं। टोपी लाल हो या सफेद अथवा हरी या नीली-पीली, बेदाग तो कोई नहीं… किंतु पत्रकारों पर जोर सबका चलता है।
पहले सिर्फ मुंह से बोलकर जोर चला लेते थे, अब हाथ-पैर भी चलाने लगे हैं क्‍योंकि जानते हैं कि पत्रकारों के भी ‘नेता’ होते हैं और ये नेता राजनीतिक दलों के नेताओं से कतई भिन्‍न नहीं होते।
इनके सिर पर किसी खास कलर की टोपी न हुई तो क्‍या, एक अदृश्‍य ‘कलंगी’ जरूर होती है। ये कलंगी जिस पत्रकार के सिर सज गई, समझो उसे सबको टोपी पहनाने का लाइसेंस मिल गया।
लाल टोपी वालों के मामले में भी देर-सवेर यही होने वाला है। किसी कलंगीधारी पत्रकार की कृपा से पिटने वाले पीटने वालों के सामने हाथ बांधे खड़े होंगे और पीटने वाले कल पूछे गए इस सवाल कि कितने में बिके हो, को इस बार घुमाकर पूछेंगे कि कितने में बिकोगे?
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी