नए कृषि कानूनों को लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलनरत किसानों की ‘ये वैरायटी’ कितनी भोली है या कितनी चालाक, इसका इल्म तो फिलहाल नहीं हो पाया है… अलबत्ता इतना जरूर पता लग चुका है कि ‘उद्भट विद्वानों’ से भरे विपक्ष में कई नेता इतने ‘भोले’ हैं कि उन्हें ‘जगत गति’ व्याप ही नहीं रही।
इन नेताओं के भोलेपन का अंदाज आप इस बात से लगा सकते हैं कि मोदी सरकार नए कानूनों को खारिज़ न करके खुद अपनी रुख़सती का मुकम्मल इंतजाम कर रही है और विपक्ष इस बात पर आमादा है कि सरकार अपनी गलती दुरुस्त करके 2024 में भी जीतने की पक्की व्यवस्था कर ले।‘पप्पू’ का पर्यायवाची शब्द हालांकि किसी शब्दकोश में ढूंढ़े नहीं मिला लेकिन ऐसा विश्वास है कि यदि इसका कोई पर्यायवाची होता तो निश्चित ही ऐसे ही ‘भोलेपन’ को सार्थक करता हुआ होता जैसे भोलेपन का मुजाहिरा विपक्षी नेता कर रहे हैं।
‘पप्पू’ ही क्यों, ‘टीपू’ और ‘जीतू’ से लेकर ‘पप्पी’ व ‘मीतू’ तक का पर्यायवाची यही होता क्योंकि सबकी क्रिया एक जैसी है। वैसे तमाम विपक्षी नेताओं के भोलेपन ने यह भी साबित कर दिया है कि ‘भोलेपन’ का पेटेंट किसी एक पार्टी अथवा किसी एक नेता के पास नहीं है बल्कि देश भरा पड़ा है ऐसे ‘भोले-भाले’ नेताओं तथा उनके अनुकरणीय नुमाइंदों से।
जरा विचार कीजिए कि यदि ये नहीं होता तो मोदी सरकार के लिए ‘आत्मघाती’ साबित होने जा रहे नए कृषि कानूनों से पीछे हटने की सलाह विपक्ष क्यों देता।
उसे तो खुश होना चाहिए था कि अब 2024 में उसे सत्ता सौंपने की व्यवस्था भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने खुद-ब-खुद कर दी।
सच पूछो तो दुख होता है विपक्षी नेताओं के ऐसे भोलेपन पर, दया आती है उनकी इतनी सिधाई पर कि जिस भाजपा ने 2014 से उसे कहीं का नहीं छोड़ा, उसी के हित में डंडा-झंडा लेकर खड़े हो गए हैं।
बल, बुद्धि, विद्या सब जाया कर रहे हैं कि मोदी सरकार किसी तरह कृषि कानून वापस ले ले।
इन मासूम नेताओं को कोई यह समझाने वाला भी नहीं कि भाई… एकबार को मान लो कि यदि मोदी सरकार ने उनकी कही कर दी और अपने कदम खींच लिए तो सरकार से किसानों का बैर खत्म समझो, और बैर खत्म हुआ नहीं कि ‘एकबार फिर मोदी सरकार’ के नारे फिजा में तैरने लगेंगे। तब ये बेचारे भोले विपक्षी नेता क्या करेंगे।
हो सकता है कि किसी अक्ल के अंधे ने इनके कान में ये बात फूंक दी हो कि ऐसा हो गया तो उसका श्रेय आपको मिल जाएगा और चुनावों में इसका सीधा लाभ तुम्हें ही मिलेगा, तो जान लो कि ऐसा नहीं होने का।
वो इसलिए कि काजू-बादाम और किशमिश खाकर आंदोलन करने वाले ये वैरायटी किसान उनके जितने भोले नहीं हैं। वो जानते हैं कि कब नेताओं को अपने घड़ियाली आंसुओं में बहा ले जाना है और कब विज्ञान भवन में सरकार के साथ सौदेबाजी के लिए जाना है।
वैरायटी खेती की हो या किसान की, होती बड़े काम की चीज है अन्यथा ‘एक ही टोपी’ समूचे विपक्ष को पहनाने की कला हर किसी को नहीं आती।
वैसे राज्यों के चुनाव तो 2021 में भी होने हैं और 2022 में भी, ऐसे में तो विपक्ष को वो प्रयास करने चाहिए कि सत्ता पक्ष इसी तरह अपनी जिद पर अड़ा रहे। किसी तरह किसानों की कोई बात मानने को तैयार न हो ताकि पहले तो इन चुनावों में भाजपा को झटके दर झटके दिए जा सकें और फिर 2024 में ऐसा किल्ला गाड़ा जा सके कि अगले 70 वर्षों तक भाजपा फिर कुर्सी को तरस जाए।
लेकिन करें तो क्या करें विपक्ष के इस भोलेपन का। इस पर हंसे या रोएं, समझ में नहीं आ रहा। समझ में आ रहा है तो सिर्फ इतना कि कैसे मोदी सरकार विपक्ष के भोलेपन का नाजायज़ लाभ अर्जित करती चली आ रही है और कैसे वैरायटी किसानों की ज़िद को भी निजी हित में मोड़ रही है।
अंत में यही समझकर लिखने का अंत करने को मन कर रहा है कि “सबसे भले वे मूढ़, जिन्हें न व्यापे जगत गति”। क्योंकि किसी के मुंह से सुना है- अत्यधिक भोलापन और मूढ़ता में बहुत अधिक फर्क नहीं है।
अंत में यही समझकर लिखने का अंत करने को मन कर रहा है कि “सबसे भले वे मूढ़, जिन्हें न व्यापे जगत गति”। क्योंकि किसी के मुंह से सुना है- अत्यधिक भोलापन और मूढ़ता में बहुत अधिक फर्क नहीं है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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