Sunday, 19 May 2013

हमारा 'पप्‍पू' पास क्‍यों नहीं होता ?

डिस्‍क्‍लेमर: हमारे 'पप्‍पू' और 'पापे' का इस देश के किसी जिंदा या मुर्दा नेता से कोई ताल्‍लुक नहीं है। यदि इनके क्रिया-कलाप किसी नेता से मेल खाते हैं, तो यह सिर्फ इत्‍तिफाक हो सकता है। जिस तरह देश की जनता किसी नेता के आचरण को गंभीरता से नहीं लेती, इसी तरह हमारे 'पप्‍पूजी' और 'पापेजी' के आचरण को भी गंभीरता से न लिया जाए। ये दोनों सिर्फ विपक्ष के सहयोग से जनता का मनोरंजन कर रहे हैं।
(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
हमारा 'पप्‍पू' एक बार फिर फेल हो गया। कोई कहता है कि 'पप्‍पू'
शादी होने से पहले वाला वो 'कालीदास' है जो उसी शाख को काटता है जिस पर वह बैठा है, तो कोई-कोई यह भी कहता है कि पप्‍पू को शादी से पहले ही ज्ञान प्राप्‍त हो गया है और उसे किसी 'विद्योत्‍तमा' की जरूररत नहीं है।
खुद पप्‍पू भी यही कहता है कि उसके जीवन में 'विद्योत्‍तमा' का कोई महत्‍व नहीं है। वह तो यह भी कहता है कि लोग उससे 'विद्योत्‍तमा' संबंधी फालतू के सवाल करना बंद करें।
इस बीच 'पप्‍पू' की बातों के निहितार्थ कुछ-कुछ 'पापेजी' को समझ आने लगे हैं और वो स्‍वचलित मुद्रा में एक हाथ अपनी जवाहरकट जेकेट की जेब के अंदर डालकर गर्दन बिना घुमाए पत्रकारों से कहते हैं कि मुझसे कुछ मत पूछिए। पप्‍पू की गूढ़ बातों का मर्म समझिए और खुद अंदाज लगाइए कि देश को मैं आखिर किसके हवाले सौंपकर जाऊं।
पप्‍पूजी ...... नहीं बनना चाहते तो इसमें इतना परेशान होने वाली बात क्‍या है।
खाली जगह को आप खुद भर लीजिए। आप चाहें तो यहां पीएम भी भर सकते हैं।
इस बीच पार्टी के कुछ लोगों ने पप्‍पूजी को समझा दिया है कि जो कुछ बोलना और जो भी कहना, इशारों-इशारों में उसी तरह कहना जिस तरह कालीदास ने विद्योत्‍तमा से शादी के पूर्व कहा था। ऐसा करते रहोगे तो कोई तुम्‍हारी बुद्धि पर शक नहीं करेगा, सिवाय पापेजी के। पापेजी से कोई प्रॉब्‍लम नहीं है, अपने तो अपने होते हैं।
ये बात दीगर है कि स्‍वामीभक्‍त इन पार्टीजनों से भी पप्‍पूजी पूछ बैठे कि कालीदास आखिर किस चिड़िया का नाम था और वो किस पेड़ की शाख पर बैठकर उसे काट रही थी।
पार्टीजन तो जानते हैं कि पास होना पप्‍पू के बस की बात नहीं लेकिन वो करें तो करें क्‍या। वो चाहते हैं देश की आन, बान और शान तथा राजनीति में 'परिवारवाद' के प्रतीक 'पप्‍पूजी' को कैसे भी एक बार पास करवा दें।
उनकी मंशा साफ है। वह 'अतुलनीय भारत' की इस विशेषता के कायल हैं कि यहां बुद्धिमत्‍ता से पद नहीं मिलता, अलबत्‍ता पद की प्राप्‍ति के बाद हर 'पप्‍पू' पास हो जाता है। फिर पब्‍लिक यह मान लेती है कि इतने बढ़े पद को सुषोभित करने वाला व्‍यक्‍ति बुद्धिमान तो होगा ही।
कुल मिलाकर करना यह है कि पप्‍पू पास हो या ना हो लेकिन उसे पद दिलवाना है। एक बार पद मिला नहीं कि पप्‍पू हमेशा-हमेशा के लिए हो लेगा पास।
अब इसमें मात्र एक समस्‍या है, और वह समस्‍या खुद पप्‍पू पैदा कर रहा है। पप्‍पू सांकेतिक भाषा में कह रहा है कि एक आदमी देश नहीं चला सकता। एक गुजराती तो कतई नहीं चला सकता। लेकिन लोग समझ रहे हैं कि पप्‍पू खुद के बारे में बात कर रहा है।
लोगों को गलतफहमी भी यूं ही नहीं हो रही।
दरअसल पप्‍पू अपनी शादी पर आपत्‍ति की तरह इस बात पर भी आपत्‍ति करता है कि पता नहीं लोग उसे कुर्सी क्‍यों देना चाहते हैं। वह कहता है कि वह घाघ राजनेता नहीं है और इसलिए उसे कुर्सी की दरकार नहीं हैं। उसकी 'आपत्‍ति' उसके अपनों को 'विपत्‍ति' लगती है।
पप्‍पू जब कहता है कि वह 100 करोड़ लोगों को साथ लेकर कुर्सी पर बैठना चाहता है तो पार्टी के ही लोग मुंह पर हाथ रखकर कह देते हैं- शेखचिल्‍ली का उवाच ना सुना हो तो हमारे पप्‍पू को सुन लो।
इस सबके बीच मुझे ऐसा लगता है कि देश में 2 ही लोग बुद्धिमान हैं। एक वो जो अक्‍सर कहते रहते हैं कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं और दूसरा पप्‍पू जो कहता है कि 90 प्रतिशत लोग अक्‍लमंद हैं।
अब पता नहीं ये दोनों लोग खुद को नाइंटी परसेंट में रखते हैं या टेन परसेंट में। बहुमत के साथ हैं या अल्‍पमत के साथ।
जो भी हो, पर पप्‍पू के पास न हो पाने से पापेजी की खुशी छिपाए नहीं छिप रही। वह मंद-मंद मुस्‍कराते महसूस किये जा सकते हैं और मन ही मन कह रहे हैं- वाह रब, तेरी मेहर जिस पर हो उसकी लॉटरी बिना नंबर लगाए भी खुल सकती है। वह भी एक बार नहीं, तीन-तीन बार।
यूं भी खुद अपने पैरों पर चलने लायक रहो या ना रहो, सरकार चलती रहती है क्‍योंकि यहां दो वैशाखियां 'मस्‍ट' नहीं हैं। यह भी जरूरी नहीं कि चलकर या बैठकर सरकार चलाई जाए। वैशाखियों से बनाई गई अर्थी पर लेटकर भी सरकार चलती है। भरोसा ना हो तो दिल्‍ली की ओर देख लो। नंगी आंखों से नहीं देख पा रहे हो तो सरकारी बाइस्‍कोप से देख लो, सब समझ में आ जाएगा।
यह भी कि पप्‍पू क्‍यों पास नहीं होना चाहता और पापेजी क्‍यों फेल होने को तैयार नहीं।
 

1 comment:

  1. भाई, ये व्यंग्य तो कमाल का है। हर लाइन में तीखापन है, लेकिन हँसी भी रोकना मुश्किल है। “पप्‍पू पास हो या ना हो, बस पद मिलना चाहिए”, ये तो हमारी राजनीति की सटीक तस्वीर है। लेखक ने बड़ी खूबसूरती से दिखाया है कि कैसे हमारे नेता “फेल” होकर भी “पास” हो जाते हैं। सबसे मजेदार बात ये है कि इसमें किसी का नाम नहीं, फिर भी सब समझ जाते हैं किसकी बात हो रही है।

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