Wednesday 19 August 2015

रंग रंगीली दुनिया, रंग रंगीले लोग

ये दुनिया जितनी रंग रंगीली है, उतने ही रंग रंगीले हैं लोग। लोगों को और रंगीन बनाती हैं उनकी आदतें। वो आदतें जिनसे हास्‍य उपजता है। ऐसा हास्‍य जो न समय देखता है, न स्‍थान। न मौका देखता है, न मौके की नज़ाकत। रंग रंगीली दुनिया के रंग रंगीले लोगों की आदतों से उपजी ऐसी ही कुछ विषम स्‍थिति-परिस्‍थितियों पर गौर फरमाइए।
दो दिन पहले मेरे एक पड़ोसी बदहवास सी हालत में आए। मैंने उनकी सूरत को देखते हुए पूछा- क्‍या हुआ, कुछ परेशान नजर आ रहे हैं।
कहने लगे- ”पता चली” मेरी बीबी 6 माह से प्रेगनेंट है। मैंने उत्‍सुकतावश पूछा- भाभीजी 6 माह से प्रेगनेंट हैं और आपको अब जाकर पता चला है।
इस पर उनका जवाब था- मजाक मत करो भाई… ”पता चली” उसे परेशानी हो रही है। कोई डॉक्‍टर बताओ।
दरअसल, ”पता चली” उनका तकिया कलाम है और वो हर वाक्‍य का आदि और अंत ”पता चली” के साथ करते हैं।
वो अगर अपने यहां पुत्र रत्‍न प्राप्‍त होने जैसा शुभ समाचार भी अपने श्रीमुख से देंगे तो विद् तकिया कलाम ही डिलीवर करेंगे। कहेंगे…”पता चली” मैं आज बेटे का बाप बन गया हूं।
यह परेशानी अकेले मेरे पड़ोसी की ही नहीं है। बहुतों के साथ होती है। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी इसके एक-दो नहीं अनेक उदाहरण मिल जायेंगे।
आश्‍चर्य की बात यह है कि इस परेशानी के शिकार लोगों को इस बात का अहसास तक नहीं होता कि वह कई मौकों पर उसके कारण मजाक का पात्र बन जाते हैं।
हमारे देश की राष्‍ट्रीय पार्टी के एक राष्‍ट्रीय स्‍तर के नेता हैं। उनका तकिया कलाम है ”भैया”।
वह हर एक वाक्‍य का प्रथम और अंतिम चरण ”भैया” से पूरा करते हैं।
उदाहरण के लिए कुछ ग्रामीणों के बीच कल ही वह बोल रहे थे- ”भैया” मैं प्रधानमंत्री से पूछना चाहता हूं कि ”भैया” वह देश को मूर्ख क्‍यों बना रहे हैं। ”भैया” आप तो जानते ही हैं ”भैया” कि एक दिन मेरी मम्‍मी ने मुझसे कहा कि ”भैया” ये राजनीति एक जहर के समान है ”भैया”।
मैं छोटा था तब अपने ”पिता” से पूछा करता था- ”भैया” आप राजनीति से इतने दिनों तक दूर क्‍यों रहे।
मैं अपनी मां से भी पूछता हूं कि ”भैया” आप मुझे मेरे हिसाब से राजनीति क्‍यों नहीं करने देतीं।
अपने जीजा से भी एक दिन कहा था कि ”भैया” अगर आप राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं तो आपका स्‍वागत है ”भैया”।
मेरी बहन कभी जब मुझे लेकर काफी चिंतित हो जाती है तो मैं उससे भी कहता हूं- ”भैया” परेशान होने की जरूरत नहीं है।
पप्‍पू कभी न कभी पास जरूर होता है ”भैया”, यह बात आप भी जानते हैं ”भैया”।
राजनीति के ही एक और युवा महारथी हैं। सॉफ्ट समाजवादी से उपजे इन महारथी का तकिया कलाम ”पाल्‍टी” है। वैसे वो वहां ‘पार्टी” बोलना चाहते हैं किंतु विरासत में मिली ”पाल्‍टी” को पाल्‍टी ही बोलते हैं और उसे ही उन्‍होंने तकिया कलाम बना लिया है।
चंद रोज पहले वह एक जगह मंच से बोल रहे थे- ”हमाई पाल्‍टी” ने जितना काम प्रदेश में किया है, उतना आजतक किसी ”पाल्‍टी” ने नहीं किया। ”हमाई पाल्‍टी” नीति, नैतिकता, सिद्धांत और कथनी व करनी की समानता के आधार पर चलती है। ”हमाई पाल्‍टी” को हमाई ही पाल्‍टी के कुछ कार्यकर्ता बदनाम कर रहे हैं। हमाई पाल्‍टी चाहती है कि वह थाने की राजनीति न करें और जमीन पर आएं।
आदत से मजबूर एक बार तो वह एक कार्यक्रम में अपने बच्‍चों की तरफ इशारा करते हुए बोल बैठे- ”हमाई इस पाल्‍टी” की नींव हमारे नेताजी ने रखी थी।
एक्‍चुअली वो अपने ”पिताजी” को ”नेताजी” कहकर ही संबोधित करते हैं। तकिया कलाम के चक्‍कर में वह बच्‍चों को ”पाल्‍टी” और पिताजी को ”पाल्‍टी की नींव” रखने वाला बता गए।
ऐसे लोगों के साथ एक समस्‍या यह और होती है कि उन्‍हें खुद समझ में नहीं आता कि उनका तकिया कलाम दूसरों के लिए मनोरंजन का साधन बन रहा है।
देश के ”सबसे तेज” न्‍यूज़ चैनल के एक न्‍यूज़ एंकर का तकिया कलाम है ”इस दौर में” और ”यूं कहें कि” ”दरअसल” आदि-आदि ।
नरेन्‍द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर जब अपने चैनल की ओर से रात्रिकालीन सेवा प्रस्‍तुत करने आए तो उचक-उचक कर कहने लगे- ”दरअसल” ”इस दौर में” में नरेंद्र मोदी को उम्‍मीद से कहीं अधिक सीटें हासिल हो गईं या ”यूं कहें कि” उन्‍हें स्‍पष्‍ट बहुमत मिल गया है। ”दरअसल” ”इस दौर में” वो प्रधानमंत्री पद की शपथ 26 मई को लेने जा रहे हैं या ”यूं कहें कि” वो 26 मई को शपथ लेंगे।
”दरअसल” यह एंकर महाशय खड़े होकर समाचार वाचन करते हैं और जितनी देर तक स्‍क्रीन पर अपनी उपस्‍थिती दर्ज कराते हैं, उतनी देर तक पंजों के बल उचकते रहते हैं।
”दरअसल” सही करते हैं वो क्‍योंकि मुझे भी ”इस दौर में” डर है कि बैठकर समाचार पढ़ने के बाद वह कैमरे की जद में आ भी पायेंगे या नहीं। या ”यूं कहें कि” दिखाई देंगे भी या नहीं।
कहने को वो राष्‍ट्रीय स्‍तर के अंतर्राष्‍ट्रीय पत्रकार हैं किंतु कभी-कभी समझ में नहीं आता कि उनके तकिया कलाम को हम क्‍या समझें क्‍योंकि हम जानते हैं समझना हमें ही होगा, वह ”इस दौर में” में समझने को तैयार नहीं हैं।
समझने को तो हम भी तैयार नहीं हैं और इसलिए उनकी बातों से ज्‍यादा ध्‍यान हम उनके तकिया कलाम पर देते हैं अन्‍यथा ”पता चली” ”भैया” हमें ”हमाई पाल्‍टी” के नेताजी जो इतना अच्‍छा काम कर रहे हैं, थोड़ा-बहुत ध्‍यान उन पर भी दिया होता।
”दरअसल” ”इस दौर में” हम इतने स्‍वार्थी हो गए हैं कि हमें अपने अलावा किसी और की अच्‍छाई नजर नहीं आती या ”यूं कहें कि” दिखाई नहीं देती।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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