Saturday, 17 September 2022

Twitter ने नेता निकम्मे कर दिए, वर्ना वो भी आदमी थे 'काम' के

 


 Twitter ने देश के तमाम नेताओं को निकम्मा बना दिया है, वर्ना वो भी कभी 'काम' के आदमी हुआ करते थे। ये नेता दिन-रात अब अपने बेडरूम से Twitter पर टर्राते रहते हैं इसलिए जनता भी इन्‍हें सीरियसली नहीं लेती। 

बहुतेरों ने तो इसके लिए भी स्‍टाफ रखा हुआ है। यानी Twitter पर भी उनकी जो चार लाइना 'बक-बक' दिखाई देती है, वो तक उनकी अपनी नहीं होती। उसमें उधार की अक्ल काम करती है। 

पहले यही नेता अपनी बात कहने के लिए 'प्रेस' के पास जाते थे। कुछ कहते थे तो कुछ सुनते भी थे। इस कहा-सुनी से उन्‍हें जमीनी हकीकत का पता लगता था और उसी के अनुरूप फिर वो अपनी दशा का अंदाज लगाकर दिशा तय करते थे। 
प्रेस के लोग भी अपनी जिम्‍मेदारी निभाते हुए इसी आधार पर उनकी चाल, चरित्र और चेहरे को जनता के बीच पेश करते थे। कुल मिलाकर एक प्रक्रिया थी, जिसका पालन सबको करना होता था। प्रेस को भी, और नेताओं को भी। 
चूंकि प्रेस शब्‍द अब मीडिया में परिवर्तित हो चुका है इसलिए वह माध्‍यम न रहकर मध्‍यस्‍थ बन गया है। वह नेताओं से सीधा संवाद करने की बजाय Twitter पर की गई उनकी टर्र-टर्र को ही नमक-मिर्च लगाकर परोस देता है। तुम्‍हारी भी जय-जय... हमारी भी जय-जय, न तुम हारे... न हम जीते। तुम भी टर्रा रहे हो, हम भी बर्रा रहे हैं। दोनों का काम चल रहा है।    
नेता समझ गए हैं कि मीडिया को कब माध्‍यम बनाना है और कब मध्‍यस्‍थ के तौर पर इस्‍तेमाल करना है इसलिए अब बाजार में 'ठप्पे वाले' मीडिया की भरमार है। ठप्‍पेवाला यह मीडिया भी जमकर Twitter-Twitter खेल रहा है। 
जो भी हो, Twitter पर चल रहे इस 'खेलानुमा खेल' ने निकम्‍मों की एक ऐसी फौज तैयार कर दी है जिससे नेताओं की नस्‍ल बिगाड़ कर रख दी। 
याद कीजिए 2012 का यूपी चुनाव। जमीन से जुड़े नेताजी के विदेश से डिग्री लेकर आए पुत्र ने सैकड़ों किलोमीटर साइकिल चलाई। जमकर पसीना बहाया, नतीजतन बाली उम्र में बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहा। 
वही नेता पुत्र अब घर बैठकर लाल टोपी के साथ नीली चिड़िया उड़ाते रहते हैं और यदि कोई सहयोगी दल उनके इस शौक पर तंज कर दे तो उसे पार्टी से बाहर का रास्‍ता दिखाने में देर नहीं करते। 
आलम यह है कि नीली चिड़िया ने लाल टोपी के अंदर घोंसला बना लिया है लेकिन नेताजी हैं कि उन्‍हें चिड़िया ही दिखती है, घोंसला नहीं।   
उससे पहले दलितों की मसीहा भी खूब दौरे करती देखी जाती थीं इसलिए तीन बार दूसरों के सहारे और अंतिम बार बिना बैसाखी की सरकार बनाने में सफल रहीं। उसके बाद पता नहीं 'महारानी' को क्या हुआ कि उन्‍होंने मठ से निकलना ही बंद कर दिया। जिनको कभी नीली चिड़िया फूटी आंख नहीं सुहाती थी, अब उन्‍हें उसके रंग में रंगना ऐसा भा गया कि वह भी टर्र-टर्र करने लगीं। 
फिलहाल उन्‍होंने मीडिया से भी दूरी बना ली है, और जो कुछ कहती हैं वह Twitter पर ही कहती हैं। पार्टी दिन-प्रतिदिन रसातल को जा रही है किंतु महारानी मठ से निकलने को तैयार नहीं। अच्‍छा-भला वोट बैंक था किंतु अब उनके नोट बैंक की चर्चा तो होती है लेकिन वोट बैंक की नहीं। 
भारत जोड़ने निकले युवराज की पार्टी के नेता किसी जमाने में जनता से जुड़ाव के लिए पहचाने जाते थे लेकिन आज स्‍थिति बदल गई है। अब उसी के नेता अपनी पार्टी से जुड़कर नहीं रह पा रहे तो जनता से कैसे जुडें। 
शायद यही कारण है कि भारत जोड़ो को लेकर लोग सवाल उठाते हुए कह रहे हैं कि मियां पहले पार्टी तो जोड़ लो, भारत बाद में जोड़ लेना। पार्टी को जोड़े बिना भारत जोड़ने का काम ना हो पाएगा। पार्टी जुड़ी रही तो भारत अपने आप आपसे जुड़ जाएगा क्योंकि कभी कश्‍मीर से कन्याकुमारी तक पार्टी के जरिए भारत से जुड़े थे। अब पार्टी को तोड़कर भारत जोड़ने निकलोगो तो कैसे जोड़ पाओगे। 
कश्‍मीर हाल ही में छूटा है और तुम जा पहुंचे कन्‍याकुमारी। कन्‍याकुमारी से निकले ही थे कि गोवा टूट गया। जुड़ता हुआ कुछ नहीं दिख रहा, टूटता हुआ रोज सामने आ रहा है। लगता है Twitter ने तुम्‍हारी भी मति भ्रष्‍ट कर दी है अन्‍यथा अनेक किंतु-परंतुओं के बाद भी कई करोड़ लोग यह मानते थे कि कुछ तो गांठ में अक्‍ल जरूर रही होगी। 
यात्रा पर निकलने से पहले Twitter जितना समय भी यदि अपनी पार्टी के नेताओं से मेल-मुलाकात में बिताया होता तो न G-23 खड़ा होता और न ये दिन देखने पड़ते। 
आज हाल यह है कि तुम यात्रा पर निकले हो तो पूरी पार्टी Twitter पर आ गई है। बड़ी संख्‍या में पुरानी पार्टी के नेता यहां नया खेल खेलने में लगे हैं और तुम हो कि सच स्‍वीकारने को तैयार नहीं। 
वैसे Twitter ने ऐसे कितने नेताओं को निकम्‍मा कर दिया, ये तो कुछ उदाहरण भर हैं। 
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

Wednesday, 7 September 2022

बहुत कन्फ्यूजन है भाई: कौन सा भारत जोड़ने निकले हैं राहुल बाबा, अंबानी-अडानी वाला या अपने वाला?


 कथित तौर पर पार्टी को तोड़ने के जिम्मेदार कांग्रेस के 'चिर कुंवर' राहुल बाबा अब 'भारत जोड़ने' निकल पड़े हैं। अपने जीवन के करीब 150 बहुमूल्‍य दिन वह भारत जोड़ने में जाया करने वाले हैं। हालांकि उन्‍होंने फिलहाल यह नहीं बताया कि वह किस भारत को जोड़ने पर आमादा हैं। 

राहुल बाबा वर्षों से लोगों को बता रहे हैं कि भारत एक नहीं, दो हैं। एक अमीरों का भारत जिसे वो अडानी-अंबानी का भारत बताते हैं और दूसरा गरीबों का भारत जिसे वो अपना मानकर चलते हैं। जाहिर है कि वो अपने वाले भारत को ही जोड़ने निकले होंगे क्योंकि अंबानी-अडानी वाला भारत मोदी जी का भारत है। उसे वो क्यों जोड़ने लगे। 
बहरहाल, मुंह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए अरबपति परिवार के उत्तराधिकारी राहुल बाबा को लगता है कि भारत एक खिलौना है जो उनके हाथ से छीन लिया गया है, और जिन्‍होंने छीना है वो इस खिलौने से खेलने लायक नहीं हैं। वह इसे खंडित कर रहे हैं। 
राहुल की सोच वाला एक और तबका है, और वो भी भारत जोड़ने निकला हुआ है। यह तबका है विपक्ष। इस तबके में शामिल लोगों के अनुसार विपक्ष ही असल भारत है, लिहाजा विपक्ष एकजुट हो गया तो समझो भारत जुड़ गया। लेकिन परेशानी यह है कि इस तबके के लोग सिर्फ 'दल' जोड़ने  की बात कर रहे हैं, 'दिल' जोड़ने की नहीं। उनके दिलों के बीच 'पीएम पद' आड़े आ रहा है।  
जिस प्रकार उच्‍चकोटि के मनुष्‍य जीवन पर्यन्‍त मात्र मोक्ष की कामना में लगे रहते हैं, उसी प्रकार हर नेता की कामना होती है कि येन-केन-प्रकारेण वह एकबार पीएम पद प्राप्‍त कर ले तो 'इहिलोक' के साथ-साथ शायद 'परलोक' भी सुधर जाएगा। 'पूर्व प्रधानमंत्री' के तमगे वाली कुर्सी वहां भी साथ ले जा सकेंगे। 'चित्रगुप्त' फिर जनसामान्य की तरह व्‍यवहार नहीं कर पाएंगे। विशिष्‍टता साथ चिपकी होगी।  
यही कारण है कि विपक्ष के भारत जोड़ो अभियान की सफलता में 'नायकों' की संख्‍या आड़े आ रही है। प्रधानमंत्री का पद एक है किंतु उस पर दावा करने वाले विपक्षी अनेक हैं। 
ओलम का पहला अक्षर होने के नाते 'अरविंद' (केजरीवाल) से शुरू करें तो अखिलेश यादव कहते हैं कि मेरा नाम भी 'अ' से प्रारंभ होता है। केसीआर की मानें तो हिंदी वर्णमाला के व्‍यंजन जहां से शुरू होते हैं वो उनके नाम का पहला अक्षर है। इसलिए वही उचित होगा। ममता बनर्जी कहती हैं कि उनके नाम में पहले आदरणीय आता है, उसके बाद बनर्जी, और फिर अंत में ममता। 'अल्फाबेट' के अनुसार उनका नाम में A के साथ B जुड़ा है इसलिए वही पीएम पद की मौलिक हकदार हैं। उनके सामने न तो 'अरविंद' का 'केजरीवाल' टिकता है और न कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव यानी केसीआर के हिज्‍जे K C R कहीं मुकाबला कर सकते हैं। 
सुशासन बाबू का 'सु' त्‍यागकर शासन पर काबिज रहने वाले नीतीश कुमार कह तो ये रहे हैं कि उनके मन में पीएम पद की कोई अभिलाषा नहीं है किंतु उनकी यह बात कोई मान नहीं रहा। लोग कह रहे हैं कि पलटी मारने में उनका कोई सानी नहीं है, यह वो बार-बार सिद्ध कर चुके हैं इसलिए जो वो कह रहे हैं, उसका 'पलट' अभी से मानकर चलने में ही भलाई है। 
यूं भी राबड़ी पुत्र पहले दिन से माला फेर रहे हैं कि 'चचा नीतेशे बाबू' की नजर दूर की कुर्सी पर अटकी रहे तो वो पास की कुर्सी खिसका लें और देश-दुनिया को बता दें कि 'पलटूराम' के खिताब पर किसी एक का अधिकार नहीं ना है। 
कन्याकुमारी से भारत जोड़ने निकले राहुल बाबा का दावा है कि पीएम पद के एकमात्र स्‍वाभाविक एवं योग्य प्रत्‍याशी सिर्फ और सिर्फ वही हैं। नेहरू से चलकर गांधी तक के सरनेम देखेंगे तो सबकुछ साफ हो जाएगा। वाड्रा को बाद में देख लीजिएगा। 
नेहरू-गांधी ने 3 पीएम देश को दिए हैं। राहुल बाबा पहले भी कई बार पूछ चुके हैं कि मेरे पास तीन-तीन पीएम की विरासत है, तुम्‍हारे पास क्या है....हैं ?     
जो भी हो... कुल मिलाकर पीएम की कुर्सी को खंड-खंड करने में व्‍यस्‍त भारत को अखंड कैसे करेंगे, इसका तो पता नहीं किंतु इतना जरूर पता है कि भारत हो या पीएम की कुर्सी, उसका विभाजन जिन्‍होंने किया है वही अब उसे जोड़ने निकले हैं। 
यहां 1947 वाले 'विभाजन' की बात नहीं की जा रही, अमीर-गरीब वाले भारत की बात की जा रही है। वैसे कोई कुछ भी समझने को स्‍वतंत्र है। परतंत्र हैं तो बस हम और आप जैसे लोग जिन्‍हें यही नहीं पता कि भारत को तोड़ने और जोड़ने की परिभाषा अलग-अलग क्यों है, और हर दिन लोकतंत्र की हत्या होने के बावजूद वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कैसे बना हुआ है। 
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी 
 

Saturday, 15 January 2022

चचा तो बहुत गुस्‍से में थे, क्या आपको भी आता है दलबदलुओं पर गुस्‍सा?


 चाय की दुकान पर चल रही चुनावी चकल्‍लस से निकलकर सीधे चले आ रहे चचा बहुत गुस्‍से में थे। ऐसे में उन्‍हें रोकना या टोकना यूं तो किसी आवारा सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा था, किंतु चुनावी चर्चा से निकली चाशनी चखने के चस्‍के ने रिस्‍क उठाने पर मजबूर कर दिया।

आम लोगों के मन में पत्रकारों की ‘बची खुची इज्जत’ को भी दांव पर लगाकर आखिर पूछ ही लिया- चचा क्या बात है, इतना क्यों गुस्‍साए हो… और किस पर गुस्‍साए हो?
करीब-करीब 70 बसंत देख चुके चचा ने सवाल के जवाब में पहले तो नथुने फुलाकर ऊपर से नीचे तक घूरा ताकि लिफाफा देखकर मजमून का इल्‍म हो सके, उसके बाद मुंह का मास्‍क नीचे करके थूक की बौछार सहित बोले- इन निर्लज्‍ज और निकम्‍मे नेताओं के इलाज का कोई आइडिया है जो टिकट की खातिर चुनाव से ठीक पहले अपना बाप बदलने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। हो तो बताओ, नहीं तो चलते बनो। खामखां दिमाग मारने का मेरा माद्दा बीत चुका है।
सुना होगा…खाली दिमाग शैतान का घर होता है। इससे पहले कि मेरा शैतान जाग जाए, चुपचाप खिसक लो वर्ना कहीं ऐसा न हो कि नेताओं की नीचता से उपजा गुस्‍सा यहीं निकल जाए।
पूरा धैर्य धारण कर चचा के गुस्‍से को मोड़ने की मंशा से कहा, चचा इसके लिए तो पब्‍लिक भी जिम्‍मेदार है जो चुपचाप इन्‍हें वोट डाल आती है। कभी इनसे नहीं पूछती कि जनता को धोखा देना कब छोड़ोगे।
पब्‍लिक के पास विकल्‍प है ही क्या। उसकी मजबूरी है इन्‍हीं ऐसे नीच, निर्लज्‍ज और दोगले नेताओं को चुनना जिनका न कोई दीन है और न ईमान। इन्‍हें पूरे कुनबे खानदान को चुनाव लड़ाना है क्योंकि वो जाहिल एवं गंवार दूसरा कोई और काम कर ही नहीं सकते।
चचा को असंसदीय शब्‍दों का प्रयोग करने से रोकने की कोशिश की तो वो भड़क गए। कहने लगे, जिन्‍हें न संसद की गरिमा का ख्‍याल है और न जनभावनाओं का, उनके लिए खालिस गालियां भी असंसदीय नहीं हो सकतीं भाई।
जिन्‍होंने संसद को भी मछली बाजार बना दिया है और जिनका असंसदीय आचरण किसी सड़कछाप गुण्‍डे को भी लज्‍जित करने के लिए काफी है, उन्‍हें संसदीय शब्‍दों से सुसज्‍जित करने की बात तो ना ही करें।
सच पूछो तो ये छूछी गालियां खाने के हकदार हैं। हालांकि, दिक्कत ये है कि जुबान गंदी करके भी इनकी ‘गिरगिटिया मानसिकता’ बदली नहीं जा सकती।
इनका इलाज अगर किसी के पास है तो वो भी इनके अपने आकाओं के पास ही है। यानी भिन्‍न-भिन्‍न दलों की राजनीति करने वाले इनके आकाओं के पास। वो यदि ये तय कर लें कि दल बदलुओं को पहले पांच साल सिर्फ और सिर्फ संगठन के लिए काम करना होगा। उसके बाद पार्टी विचार करेगी कि चुनाव लड़वाया जाए या नहीं, तो कुछ समस्‍या हल हो सकती है।
चचा की बात में दम देख उन्‍हें और थोड़ा कुरेदा तो कहने लगे- तुम्‍हीं बताओ भाई… किसी भी तरह एक मर्तबा सफल होने के बाद पूरी जिंदगी का मुकम्‍मल इंतजाम किसी दूसरे धंधे में हो सकता है क्या?
एकबार चुनकर आने का मतलब है ताजिंदगी पेंशन पाने का अधिकार, वो भी बिना कुछ किए धरे।
आम आदमी एड़ियां रगड़ रगड़ कर मर जाता है लेकिन बच्‍चों का भविष्‍य सुरक्षित नहीं कर पाता और इन हरामखोरों की हवस ही पूरी नहीं होती। अपने साथ-साथ अपनी निकम्‍मी औलादों को भी देश पर थोपते जा रहे हैं।
जैसे देश न हुआ, किसी सुल्‍तान का हरम हो गया जिसमें वो जितनी चाहें बांदियां और जितने चाहें ‘उभयलिंगी’ गुलाम पाल सकें।
चचा ने स्‍पष्‍ट किया कि वो नेताओं की औलादों को उभयलिंगी क्यों कह रहे हैं। उनकी दृष्‍टि से उभयलिंगी वो नहीं है जो प्रकृति प्रदत्त किसी शारीरिक खामी का मोहताज है, सही अर्थों में उभयलिंगी वही है जो मौकापरस्‍त है और अपनी कुत्‍सित क्रियाओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकता है।
चचा से चर्चा के बाद यह सोचकर एक सुखद अनुभूति भी हुई कि आज नहीं तो कल, राजनीतिक दलों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाने वाले ये सोचने पर जरूर मजबूर होंगे कि मत-दाता का मत बदलने से पहले उन्‍हें बदल जाना चाहिए। अन्‍यथा वो दिन दूर नहीं जब चुनाव-दर-चुनाव तमाशा देख रहे लोग इन्‍हें जूता हाथ में लेकर दौड़ाने लगेंगे और तब इनका आलिंगन करने को न कोई दल बचेगा, न दिल। फिर इनकी वो औलादें जिनकी खातिर आज ये अपनी निष्‍ठाएं कपड़ों की तरह बदलते हैं, राजनीति से हमेशा हमेशा के लिए तौबा करती नजर आएंगी।
जय हिंद, जय भारत!
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी