Twitter ने देश के तमाम नेताओं को निकम्मा बना दिया है, वर्ना वो भी कभी 'काम' के आदमी हुआ करते थे। ये नेता दिन-रात अब अपने बेडरूम से Twitter पर टर्राते रहते हैं इसलिए जनता भी इन्हें सीरियसली नहीं लेती।
बहुतेरों ने तो इसके लिए भी स्टाफ रखा हुआ है। यानी Twitter पर भी उनकी जो चार लाइना 'बक-बक' दिखाई देती है, वो तक उनकी अपनी नहीं होती। उसमें उधार की अक्ल काम करती है।
पहले यही नेता अपनी बात कहने के लिए 'प्रेस' के पास जाते थे। कुछ कहते थे तो कुछ सुनते भी थे। इस कहा-सुनी से उन्हें जमीनी हकीकत का पता लगता था और उसी के अनुरूप फिर वो अपनी दशा का अंदाज लगाकर दिशा तय करते थे।
प्रेस के लोग भी अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए इसी आधार पर उनकी चाल, चरित्र और चेहरे को जनता के बीच पेश करते थे। कुल मिलाकर एक प्रक्रिया थी, जिसका पालन सबको करना होता था। प्रेस को भी, और नेताओं को भी।
चूंकि प्रेस शब्द अब मीडिया में परिवर्तित हो चुका है इसलिए वह माध्यम न रहकर मध्यस्थ बन गया है। वह नेताओं से सीधा संवाद करने की बजाय Twitter पर की गई उनकी टर्र-टर्र को ही नमक-मिर्च लगाकर परोस देता है। तुम्हारी भी जय-जय... हमारी भी जय-जय, न तुम हारे... न हम जीते। तुम भी टर्रा रहे हो, हम भी बर्रा रहे हैं। दोनों का काम चल रहा है।
नेता समझ गए हैं कि मीडिया को कब माध्यम बनाना है और कब मध्यस्थ के तौर पर इस्तेमाल करना है इसलिए अब बाजार में 'ठप्पे वाले' मीडिया की भरमार है। ठप्पेवाला यह मीडिया भी जमकर Twitter-Twitter खेल रहा है।
जो भी हो, Twitter पर चल रहे इस 'खेलानुमा खेल' ने निकम्मों की एक ऐसी फौज तैयार कर दी है जिससे नेताओं की नस्ल बिगाड़ कर रख दी।
याद कीजिए 2012 का यूपी चुनाव। जमीन से जुड़े नेताजी के विदेश से डिग्री लेकर आए पुत्र ने सैकड़ों किलोमीटर साइकिल चलाई। जमकर पसीना बहाया, नतीजतन बाली उम्र में बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहा।
वही नेता पुत्र अब घर बैठकर लाल टोपी के साथ नीली चिड़िया उड़ाते रहते हैं और यदि कोई सहयोगी दल उनके इस शौक पर तंज कर दे तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं करते।
आलम यह है कि नीली चिड़िया ने लाल टोपी के अंदर घोंसला बना लिया है लेकिन नेताजी हैं कि उन्हें चिड़िया ही दिखती है, घोंसला नहीं।
उससे पहले दलितों की मसीहा भी खूब दौरे करती देखी जाती थीं इसलिए तीन बार दूसरों के सहारे और अंतिम बार बिना बैसाखी की सरकार बनाने में सफल रहीं। उसके बाद पता नहीं 'महारानी' को क्या हुआ कि उन्होंने मठ से निकलना ही बंद कर दिया। जिनको कभी नीली चिड़िया फूटी आंख नहीं सुहाती थी, अब उन्हें उसके रंग में रंगना ऐसा भा गया कि वह भी टर्र-टर्र करने लगीं।
फिलहाल उन्होंने मीडिया से भी दूरी बना ली है, और जो कुछ कहती हैं वह Twitter पर ही कहती हैं। पार्टी दिन-प्रतिदिन रसातल को जा रही है किंतु महारानी मठ से निकलने को तैयार नहीं। अच्छा-भला वोट बैंक था किंतु अब उनके नोट बैंक की चर्चा तो होती है लेकिन वोट बैंक की नहीं।
भारत जोड़ने निकले युवराज की पार्टी के नेता किसी जमाने में जनता से जुड़ाव के लिए पहचाने जाते थे लेकिन आज स्थिति बदल गई है। अब उसी के नेता अपनी पार्टी से जुड़कर नहीं रह पा रहे तो जनता से कैसे जुडें।
शायद यही कारण है कि भारत जोड़ो को लेकर लोग सवाल उठाते हुए कह रहे हैं कि मियां पहले पार्टी तो जोड़ लो, भारत बाद में जोड़ लेना। पार्टी को जोड़े बिना भारत जोड़ने का काम ना हो पाएगा। पार्टी जुड़ी रही तो भारत अपने आप आपसे जुड़ जाएगा क्योंकि कभी कश्मीर से कन्याकुमारी तक पार्टी के जरिए भारत से जुड़े थे। अब पार्टी को तोड़कर भारत जोड़ने निकलोगो तो कैसे जोड़ पाओगे।
कश्मीर हाल ही में छूटा है और तुम जा पहुंचे कन्याकुमारी। कन्याकुमारी से निकले ही थे कि गोवा टूट गया। जुड़ता हुआ कुछ नहीं दिख रहा, टूटता हुआ रोज सामने आ रहा है। लगता है Twitter ने तुम्हारी भी मति भ्रष्ट कर दी है अन्यथा अनेक किंतु-परंतुओं के बाद भी कई करोड़ लोग यह मानते थे कि कुछ तो गांठ में अक्ल जरूर रही होगी।
यात्रा पर निकलने से पहले Twitter जितना समय भी यदि अपनी पार्टी के नेताओं से मेल-मुलाकात में बिताया होता तो न G-23 खड़ा होता और न ये दिन देखने पड़ते।
आज हाल यह है कि तुम यात्रा पर निकले हो तो पूरी पार्टी Twitter पर आ गई है। बड़ी संख्या में पुरानी पार्टी के नेता यहां नया खेल खेलने में लगे हैं और तुम हो कि सच स्वीकारने को तैयार नहीं।
वैसे Twitter ने ऐसे कितने नेताओं को निकम्मा कर दिया, ये तो कुछ उदाहरण भर हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी